एलेक पद्‌मसी की ‘डबल लाइफ’

27 अप्रैल 2000

गांधी और जिन्ना- सर रिचर्ड एटनबरो की फिल्म ‘गांधी’ में मुझे उन्होंने मोहम्मद अली जिन्ना का रोल दिया। रंगमंच से तो मैं तीस साल से जुड़ा था, पर सिनेमा में एक्टिंग का यह पहला अवसर था और क्या गजब व्यक्तित्व है रिचर्ड भी। पहले ही दिन मैं शूटिंग पर जाने के लिए सिर्फ दो मिनट देर से पहुंचा, तो मुझे ले जाने वाली कार जा चुकी थी। रिचर्ड ने मेरी चुटकी लेते हुए कहा, ‘फिल्म शूटिंग का एक मिनट 1 हजार पौंड के बराबर है।’ 2 मिनट देरी यानी 2 हजार पौंड गए पानी में। मैं तो दंग रह गया।

इसी फिल्म की शूटिंग के दौरान मैंने अपने जीवन का सबसे कामयाब विज्ञापन लिखा। रिचर्ड गांधीजी की अंत्येष्टि फिल्माना चाहते थे, पर समस्या थी कि इतने सारे लोग कहां से लाएं। हमने गांधीजी की पुण्यतिथि के दिन ही नई दिल्ली में हिंदुस्तान टाइम्स में एक विज्ञापन दिया- ’31 जनवरी को इतिहास पुनः दोहराया जाएगा, क्या आप वहां होंगे‘ ? आप मानेंगे नहीं, विज्ञापन इतना कारगर रहा कि पूरा राजपथ लोगों से भर गया था।

थियेटर और विज्ञापन में समानताएं

ऐसा क्या है कि विज्ञापन और रंगकर्म यानी दो अलग विधाओं के साथ मैं एक साथ जीवनभर जुड़ा रहा हूं। मेरी इस दोहरी जिंदगी के कामयाब होने में दोनों विधाओं में भी तो समानता होनी चाहिए और कई हैं भी। रंगमंच में तो सदा ही कलाकार को किरदार के रोल में डूब जाना पड़ता है। फिर चाहे आप जो भी पात्र निभा रहे हों और विज्ञापन में भी कुछ ऐसी ही कहानी है। अगर एक पुरुष लिपस्टिक का विज्ञापन कर रहा है तो उसे महिलाओं की तरह ही सोचना पड़ेगा। दोनों ही में ‘बिग आइडिया‘ बड़ा महत्वपूर्ण है, जिसकी नींव पर पूरा प्ले या पूरी विज्ञापन श्रृंखला आधारित होती है। उसी विचार के इर्द-गिर्द विज्ञापन बनते हैं या प्ले तैयार किए जाते हैं। दोनों ही में छोटी-छोटी बातों की ओर उतना ही ध्यान देना आवश्यक होता है, जितना मूल मुद्दे पर। इसलिए अनुशासन और ‘प्रोफेशनलिज्म‘ की दोनों ही में बहुत जरूरत होती है। और अंत में आता है श्रोता, जिसके बगैर न तो रंगमंच हो सकता है और न ही विज्ञापन। नाटक की रिहर्सल में आपने महीनों खपा दिए हों, पर अगर हॉल दर्शकों से भरा न हो तो आप अदाकारी कर ही नहीं पाएंगे। ठीक ऐसा ही विज्ञापन के लिए भी है। आपका विज्ञापन अगर कोई नहीं देख रहा हो तो वह किस काम का।

कामसूत्र

जे.के. उद्योग समूह के युवा गौतम सिंघानिया ने हमें लिंटास में आकर कहा, मैं एक गर्भनिरोधक (कंडोम) बनाकर बेचना चाहता हूं, पर उसकी मार्केटिंग तथा विज्ञापन और ब्रांडिंग कैसे करें। बड़ा जटिल और चुनौतीभरा काम था, पर उसे हमने स्वीकार किया। पहले भारत के बाजार का सर्वे किया, जिसमें हमने पाया कि निरोध के बारे में जानते तो सब हैं, पर बिक्री कुछ भी नहीं। आखिर क्यों? क्योंकि वह तो एड्‌स प्रतिरोधक, परिवार नियोजन के रूप में बेचा जा रहा था। ‘सुख और आनंद की अनुभूति‘ से बिलकुल विपरीत। यानी एक ऐसा प्रॉडक्ट जो अपनी नैसर्गिक प्रकृति से ही बिलकुल अलग हो तो वो कैसे बिकेगा?

यह ऐसा ही था कि आप कहें ‘मुझे बड़ी जोर से भूख लगी है‘ और कोई आपसे कहे ‘दलिया खा लो।’ एक पल में आपकी भूख और स्वाद सब मर जाएंगे। तब हमने पकड़ी नई धारणा कि ‘कंडोम‘ स्वास्थ्य की दुहाई के बजाय आनंद की अनुभूति में सहभागी बने। तब जन्म लिया ब्रांड कामसूत्र और पूजा बेदी के विज्ञापन ने, जिन्होंने तहलका मचा दिया। हमसे कई सवाल-जवाब भी हुए पर हमने तो कहीं भी अश्लीलता की कोई सीमा नहीं लांघी थी। भारत में ‘कामसूत्र‘ या ‘के.एस.’ आज ‘कंडोम‘ का पर्याय बन गया है और वह भी सिर्फ चंद वर्षों में, सिर्फ सोच का फर्क था। और इस सोच के फर्क से दुनिया बदल गई।

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