एलेक पद्‌मसी की ‘डबल लाइफ’

27 अप्रैल 2000

एलेक पद्‌मसी की 'डबल लाइफ' भारत में विज्ञापन की दुनिया के बेताज सरताज एलेक पद्‌मसी को पिछले दिनों भारत सरकार ने पद्‌मश्री से सम्मानित किया। ठीक उसके बाद मुंबई के विज्ञापन जगत में चर्चित ‘ऐबी’ अवॉर्ड्‌ज में एलेक पद्‌मसी को भारत का ‘एडवरटाइजिंग मैन आफ द सेंचुरी‘ के अलंकरण से पुरस्कृत किया गया। आखिर क्या शख्सियत हैं एलेक, जिनके साथ न जाने कितने तमगे, किस्से और उपनाम जुड़े हैं?

काफी लंबे समय तक भारत की सबसे बड़ी एड एजेंसी ‘लिंटास‘ इंडिया में कर्ताधर्ता तीन महिलाओं के जीवनसाथी रह चुके, जिसमें वर्तमान पत्नी पॉप स्टार शेरॉन प्रभाकर भी हैं, थियेटर (नाटक-रंगमंच) की दुनिया में भी विज्ञापन जितना ही बड़ा नाम और काम, सर्फ की ललिताजी, लिरिल गर्ल और कामसूत्र जैसे अत्यंत मशहूर तथा सफल विज्ञापनों के प्रणेता और कुछ समय पहले बने चंद्रबाबू नायडू के सलाहकार- आइए आपकी मुलाकात करवाते हैं एलेक पद्‌मसी से जो आधारित है उनकी आत्मकथा ‘ए डबल लाइफ‘ (एक दोहरी ज़िंदगी) पर जो कुछ समय पहले उनके और अरुण प्रभु के मिले-जुले प्रयास से प्रकाशित हुई थी।

कामयाब नुस्खों का जादू

भारत में पश्चिमी विज्ञापनों की ‘नकल’ करने से सफलता नहीं मिल सकती। हमारी सोच और सृजन भी पश्चिमी देशों जितना प्रबल है, पर वो हटकर है, क्योंकि हमारे विज्ञापन हमारे परिवेश और माहौल को ध्यान में रखकर सोचे और बनाए जाते हैं। हिंदुस्तान लीवर के विज्ञापन वर्षों से लिंटास ही बनाती आई है और उनके कई सुप्रसिद्ध ब्रांड भारत में ही बने हैं, जैसे डालडा, लिरिल, सर्फ, लाइफबॉय, और यह सब लिंटास इंडिया ने पूरी तरह भारतीय सोच के अनुरूप बनाए हैं। सर्फ-निरमा की टक्कर ने हिंदुस्तान लीवर और सर्फ की नाक में दम कर रखा था। निरमा की बिक्री 1 हजार टन से 250000 टन तक बढ़ती गई और सर्फ 45000 टन से 34000 टन पर गिर गया। सर्फ था भी निरमा से तीन गुना महंगा। मामला पेचीदा था, लेकिन अलग सोच से नतीजा निकला। बकौल पद्‌मसी, लीवर ने हमें लिंटास में सुझाव दिया कि हम उनकी अंतरराष्ट्रीय

हमने सोचा एक ऐसी भारतीय गृहिणी के बारे में जो मोल-भाव तो खूब करती है, पर सिर्फ सस्ते के लिए नहीं, बल्कि ‘वैल्यू फॉर मनी’ के लिए

कैम्पैन‘ में से सफेदी तथा सर्फ के शक्तिशाली एक्शन की बात पुनः दोहराएं, पर मुझे लग रहा था कि यह सब बहुत ‘रेशनल’ है। लोगों के दिमाग पर तो असर करेगा, मगर दिल नहीं जीतेगा। फिर हम सबने अपना दिमाग लगाया और पूर्णतः देसी तरीके से अपना विज्ञापन सोचा और जन्म हुआ ललिताजी का। हमने सोचा एक ऐसी भारतीय गृहिणी के बारे में जो मोल-भाव तो खूब करती है, पर सिर्फ सस्ते के लिए नहीं, बल्कि ‘वैल्यू फॉर मनी‘ के लिए। तभी वो कहती हैं कि ‘सस्ती चीज और अच्छी चीज में फर्क होता है भाईसाब।’ बात तो वह भी वही कहती हैं कि आधा किलो सर्फ 1 किलो निरमा के बराबर कपड़े धोता है, पर बिलकुल अपने ढंग से। देसी परिवेश, देसी ढंग, बात कहने का देसी अंदाज और बात बन गई और पूरे भारत में छा गई रवि बेटे की मां ललिताजी और उनकी ‘सर्फ की खरीददारी में ही समझदारी है।’ न सिर्फ यह विज्ञापन लोगों को पसंद आया, बल्कि उसने सर्फ की बिक्री में कई गुना बढ़ोतरी की।

लाइफबॉय- 1960 के दशक में लीवर सारी दुनिया में लाइफबॉय बेच रहे थे, पर उनके विज्ञापन की ‘थीम‘ थी शरीर की दुर्गंध हटाने में सहायक। पर हमने भारत के लिए भी इसी थीम से अपनी सहमति जाहिर की। भारत में शरीर की गंध-दुर्गंध की ओर कोई इतना ध्यान नहीं देता। पश्चिम में घर, ऑफिस सब बंद होने से घुटन होती है। यहां तो खिड़की-दरवाजे सब खुले रहते हैं, पसीने की बदबू का एहसास इतना नहीं होता।

हमने तो इसके बजाय ‘तंदुरुस्ती’ की धारा को थामकर, ‘लाइफबॉय है जहां, तंदुरुस्ती है वहां‘ का नारा बनाया और लाइफबॉय साबुन तो जैसे छा गया। लाइफबॉय ‘वेस्ट‘ में तो कभी का खत्म हो गया पर आज भी भारत में यह सर्वाधिक बिकने वाले साबुनों में से है। और एक समय तो लाइफबॉय दुनिया में सबसे अधिक बिकने वाला साबुन था।

गांधी और जिन्ना- सर रिचर्ड एटनबरो की फिल्म ‘गांधी’ में मुझे उन्होंने मोहम्मद अली जिन्ना का रोल दिया। रंगमंच से तो मैं तीस साल से जुड़ा था, पर सिनेमा में एक्टिंग का यह पहला अवसर था और क्या गजब व्यक्तित्व है रिचर्ड भी। पहले ही दिन मैं शूटिंग पर जाने के लिए सिर्फ दो मिनट देर से पहुंचा, तो मुझे ले जाने वाली कार जा चुकी थी। रिचर्ड ने मेरी चुटकी लेते हुए कहा, ‘फिल्म शूटिंग का एक मिनट 1 हजार पौंड के बराबर है।’ 2 मिनट देरी यानी 2 हजार पौंड गए पानी में। मैं तो दंग रह गया।

इसी फिल्म की शूटिंग के दौरान मैंने अपने जीवन का सबसे कामयाब विज्ञापन लिखा। रिचर्ड गांधीजी की अंत्येष्टि फिल्माना चाहते थे, पर समस्या थी कि इतने सारे लोग कहां से लाएं। हमने गांधीजी की पुण्यतिथि के दिन ही नई दिल्ली में हिंदुस्तान टाइम्स में एक विज्ञापन दिया- ’31 जनवरी को इतिहास पुनः दोहराया जाएगा, क्या आप वहां होंगे‘ ? आप मानेंगे नहीं, विज्ञापन इतना कारगर रहा कि पूरा राजपथ लोगों से भर गया था।

थियेटर और विज्ञापन में समानताएं

ऐसा क्या है कि विज्ञापन और रंगकर्म यानी दो अलग विधाओं के साथ मैं एक साथ जीवनभर जुड़ा रहा हूं। मेरी इस दोहरी जिंदगी के कामयाब होने में दोनों विधाओं में भी तो समानता होनी चाहिए और कई हैं भी। रंगमंच में तो सदा ही कलाकार को किरदार के रोल में डूब जाना पड़ता है। फिर चाहे आप जो भी पात्र निभा रहे हों और विज्ञापन में भी कुछ ऐसी ही कहानी है। अगर एक पुरुष लिपस्टिक का विज्ञापन कर रहा है तो उसे महिलाओं की तरह ही सोचना पड़ेगा। दोनों ही में ‘बिग आइडिया‘ बड़ा महत्वपूर्ण है, जिसकी नींव पर पूरा प्ले या पूरी विज्ञापन श्रृंखला आधारित होती है। उसी विचार के इर्द-गिर्द विज्ञापन बनते हैं या प्ले तैयार किए जाते हैं। दोनों ही में छोटी-छोटी बातों की ओर उतना ही ध्यान देना आवश्यक होता है, जितना मूल मुद्दे पर। इसलिए अनुशासन और ‘प्रोफेशनलिज्म‘ की दोनों ही में बहुत जरूरत होती है। और अंत में आता है श्रोता, जिसके बगैर न तो रंगमंच हो सकता है और न ही विज्ञापन। नाटक की रिहर्सल में आपने महीनों खपा दिए हों, पर अगर हॉल दर्शकों से भरा न हो तो आप अदाकारी कर ही नहीं पाएंगे। ठीक ऐसा ही विज्ञापन के लिए भी है। आपका विज्ञापन अगर कोई नहीं देख रहा हो तो वह किस काम का।

कामसूत्र

जे.के. उद्योग समूह के युवा गौतम सिंघानिया ने हमें लिंटास में आकर कहा, मैं एक गर्भनिरोधक (कंडोम) बनाकर बेचना चाहता हूं, पर उसकी मार्केटिंग तथा विज्ञापन और ब्रांडिंग कैसे करें। बड़ा जटिल और चुनौतीभरा काम था, पर उसे हमने स्वीकार किया। पहले भारत के बाजार का सर्वे किया, जिसमें हमने पाया कि निरोध के बारे में जानते तो सब हैं, पर बिक्री कुछ भी नहीं। आखिर क्यों? क्योंकि वह तो एड्‌स प्रतिरोधक, परिवार नियोजन के रूप में बेचा जा रहा था। ‘सुख और आनंद की अनुभूति‘ से बिलकुल विपरीत। यानी एक ऐसा प्रॉडक्ट जो अपनी नैसर्गिक प्रकृति से ही बिलकुल अलग हो तो वो कैसे बिकेगा?

यह ऐसा ही था कि आप कहें ‘मुझे बड़ी जोर से भूख लगी है‘ और कोई आपसे कहे ‘दलिया खा लो।’ एक पल में आपकी भूख और स्वाद सब मर जाएंगे। तब हमने पकड़ी नई धारणा कि ‘कंडोम‘ स्वास्थ्य की दुहाई के बजाय आनंद की अनुभूति में सहभागी बने। तब जन्म लिया ब्रांड कामसूत्र और पूजा बेदी के विज्ञापन ने, जिन्होंने तहलका मचा दिया। हमसे कई सवाल-जवाब भी हुए पर हमने तो कहीं भी अश्लीलता की कोई सीमा नहीं लांघी थी। भारत में ‘कामसूत्र‘ या ‘के.एस.’ आज ‘कंडोम‘ का पर्याय बन गया है और वह भी सिर्फ चंद वर्षों में, सिर्फ सोच का फर्क था। और इस सोच के फर्क से दुनिया बदल गई।

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