अमृतसर से लौटकर

13 अक्टूबर 1988

अमृतसर से लौटकर मृतसर का पवित्र स्वर्ण मंदिर अब भय, आतंक और उपद्रव की गतिविधियों से पूर्णतया मुक्त हो चुका है। दर्शनार्थी अब पुनः निर्भय और निःशंक होकर अरदास के लिए वहां जाने लगे हैं। पवित्र हरमंदिर साहब के दर्शन करते ही मन शांति और आदर से ओतप्रोत हो जाता है।

जम्मू-कश्मीर में स्थित वैष्णो देवी मंदिर के विषय में यह किंवदंती प्रसिद्ध है कि अगर ‘माता का बुलावा‘ न आया हो तो दर्शनार्थी मंदिर की चौखट तक पहुंचकर भी बगैर दर्शन के लौट आते हैं। कुछ इसी प्रकार का किस्सा मेरे साथ भी हुआ। पिछले सप्ताह उत्तर भारत में हुई भीषण अतिवृष्टि से आवागमन के अधिकांश साधन अवरुद्ध हो गए थे। जिस ट्रेन से मैं जम्मू के लिए सफर कर रहा था, वह पठानकोट पर ही रुक गई। पठानकोट से जब वापस दिल्ली की ओर चला तो ट्रेन अमृतसर समाप्त हो गई। मार्ग के सभी नदी-नाले अपने पूरे उफान पर थे। सतलज का जलस्तर पटरी से सिर्फ कुछ फुट ही नीचे रह गया था। यहां तक कि कई स्थानों पर तो ट्रेन के चलने की आवाज ही आना बंद हो गई थी। कारण, पटरियों पर भी पानी भर गया था।

ऐसे हालात में हम अमृतसर पहुंचे। पिछले कुछ वर्षों से पंजाब और विशेषकर अमृतसर के लिए मन में एक विशिष्ट-सी छवि बन गई है। अब जब शहर में पहुंच ही गए थे तो आवास आदि के स्थान देखने के लिए स्टेशन से बाहर निकलना तो अनिवार्य था। कुछ सहमे-से, कुछ डरे-से हम होटल पहुंचे। इसी आशा के साथ कि हमारा अमृतसर प्रवास सिर्फ कुछ घंटों तक सीमित रह जाए, परंतु जल, थल, वायु के आवागमन मार्गों की बिगड़ी हुई स्थिति से यह साफ जाहिर था कि ऐसा होगा नहीं और हुआ भी ऐसा ही। हमें चार दिन अमृतसर में रुकना पड़ा।

सामने के घंटाघर का गुंबद पूरी तरह ध्वस्त स्थिति में खड़ा था। घड़ी की गति न जाने कब से थम गई थी। दीवारों पर गोली-बारूद से हुए नुकसान के अवशेष साफ झलकते हैं

स्नान आदि से निवृत्त होकर स्वर्ण मंदिर और जलियांवाला बाग देखने का कार्यक्रम बना। तांगे में बैठकर (अमृतसर में तांगे और मानव चालित रिक्शा सार्वजनिक यातायात के प्रचलित साधन हैं) स्वर्ण मंदिर का मार्ग अत्यंत ही कौतूहल और विस्मय में व्यतीत हुआ। पुराने शहर के मध्य स्वर्ण मंदिर तक पहुंचने के समय तक यह ख्याल बार-बार मन में उठ रहा था कि आज समूचा भारत इन गली-कूचों और सड़कों को किन पाशविक कृत्यों का पर्याय समझ रहा है।

स्वर्ण मंदिर परिसर के बाहर ही सुरक्षा कर्मियों से पहली बार नजरें चार हुईं। ‘मेटल डिटेक्टर‘ से चेकिंग करने के पश्चात हमें कैमरा भी अंदर ले जाने की पूर्ण छूट दे दी गई। मंदिर के समीप पहुंचते ही ‘ब्ल्यू स्टार‘ और ‘ब्लैक थंडर‘ की यादें ताजा हो गईं। सामने के घंटाघर का गुंबद पूरी तरह ध्वस्त स्थिति में खड़ा था। घड़ी की गति न जाने कब से थम गई थी। दीवारों पर गोली-बारूद से हुए नुकसान के अवशेष साफ झलकते हैं। अगर सिर्फ गुंबद को ही देखें और अन्य इमारतों पर ध्यान न दें तो लगता है जैसे वर्षों से इस क्षत-विक्षत खंडहर का कोई हरनुमा न रहा हो, परंतु जैसे ही अंदर प्रवेश कर हरमंदिर साहब के पावन दर्शन होते हैं, मन शांति और आदर से ओतप्रोत हो जाता है।

जैसा कि चित्रों से ज्ञात है, हरमंदिर साहब एक जलाशय के मध्य में स्थित है। इसके ठीक सामने अकाल तख्त है और जलाशय परिक्रमा के चारों ओर कई अन्य इमारतें बनी हुई हैं, जैसे गुरु रामदास सराय, लंगर भवन, घंटाघर आदि। परिक्रमा के बगल में कई कमरे कतार में बने हुए हैं। कुछ समय पहले तक इन्हीं में से कई कमरे आतंकवादियों के गढ़ थे, परंतु अब सभी की पुताई-रंगाई और सफाई का काम चल रहा है। उल्लेखनीय है कि परिक्रमा और परिसर के विशाल क्षेत्रफल के बावजूद वहां की सफाई काबिले-तारीफ है।

लौट आए स्वर्ण मंदिर में दर्शनार्थियों की अपार भीड़ और ‘केशर द ढाबा‘ के बाहर रात को दो बजे हलुवा प्रेमियों का सैलाब। उसी सब का बेसब्री से इंतजार है अमृतसर शहरवासियों को, सारे देश को

ज्ञात हुआ है कि दिन में दो बार सफाई का यह कार्य सार्वजनिक रूप से किया जाता है, जिसमें जाति, धर्म, आयु, वर्ग के बंधनों से परे सभी भक्त योगदान देते हैं, परंतु यह जरूर प्रश्न का विषय रहा कि मंदिर की प्रसिद्धि और आकार-प्रकार को देखते हुए दर्शनार्थियों का आना-जाना तो सिर्फ इक्के-दुक्के में चल रहा था। यहां तक कि हरमंदिर साहब के गर्भगृह में भी बैठने के लिए पर्याप्त जगह आसानी से मिल जाती है।

मंदिर परिसर में कोई भी सुरक्षाकर्मी वर्दी में दिखाई नहीं दिए, परंतु साधारण वस्त्रों में कई सुरक्षाकर्मी निश्चित तौर पर निगरानी का कार्य संभालते होंगे, ऐसा अनुमान बेबुनियाद नहीं हो सकता। वर्तमान में तो शहर में चर्चा का विषय सिर्फ यही था कि वे कौन भाग्यशाली हैं, जिनकी संपत्ति सरकार द्वारा स्वर्ण मंदिर परिसर के निकट होने के कारण ध्वस्त की जा रही है। बाजार भाव से लगभग चार-पांच गुना कीमत पर सरकार पैसे का त्वरित भुगतान कर रही है और ऐसा अनुमान है कि अमृतसर में तो जमीन-जायदाद के भावों में तेजी के बजाय मंदी ही आई है।

यूं शहर में भय, आतंक और डर नामक कोई चीज सर्वव्याप्त हो, यह धारणा पूर्णतः निराधार है। हां, शाम ढलने के साथ ही शहर में जैसे कर्फ्यू-सा लग जाता है। सिनेमा हॉल 10 बजे बंद हो जाते हैं। 9 बजे बाद तो सड़कें एकदम सुनसान हो जाती हैं। नजर आती हैं सिर्फ गश्त पार्टियां और पुलिस के लगभग हर चौराहे पर बने ‘पिल बॉक्स’। अमृतसर में पुलिस डंडा या लाठी लिए कम ही नजर आती है। बस हर पांच मिनटों में एक ‘मारुति जिप्सी’ में 6-7 सशस्त्र सुरक्षा गार्ड गश्त लगाते हुए हर जगह दिखाई पड़ जाते हैं। वैसे भी अमृतसर में तो जैसे ‘मारुति’ का मेला-सा लगा हुआ है। कुल चार पहिया वाहन बनाम मारुति की स्पर्धा में अमृतसर का नाम राष्ट्रीय क्रम के शीर्ष पर हो तो कोई आश्चर्य नहीं।

उपद्रवी गतिविधियों से सर्वाधिक प्रभावित हैं तो वहां का व्यापारी वर्ग। अमृतसर सदैव से ही क्रय-विक्रय का प्रमुख क्षेत्र रहा है, परंतु जब अन्य प्रांतों से व्यापारियों का आवागमन कम हो गया है तो यह स्वाभाविक है कि व्यवसाय पर विपरीत प्रभाव जरूर पड़ेगा। साधारणतः दुकानों, बाजारों से जुड़ी ग्राहकों की भीड़ और दुकानदारों की हलचल और स्फूर्ति वहां काफी हद तक नदारद है। अगर पूर्णतः बरकरार है तो उस शहर का अच्छे खाद्य पदार्थों और भोजन से रिश्ता। वहां के ढाबे और मिठाई वाले सदैव की तरह ही ‘हाउस फुल‘ रहते हैं। अमृतसर में खाने की ‘क्वालिटी‘ किसी भी कीमत पर शहीद नहीं होती है और यह सिलसिला कुछ अर्से से नहीं, वरन सालों से चला आ रहा है। सब इसी आशा में हैं कि हालात पूर्णतः सामान्य हो जाएं, शहर के अंतर में दबा सहमापन हमेशा के लिए विदा हो जाए और लौट आए वही आनंद, वही उल्लास। लौट आए स्वर्ण मंदिर में दर्शनार्थियों की अपार भीड़ और ‘केशर द ढाबा‘ के बाहर रात को दो बजे हलुवा प्रेमियों का सैलाब। उसी सब का बेसब्री से इंतजार है अमृतसर शहरवासियों को, सारे देश को।

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