सिनेमा हॉल में गहने एवं पैकेट में गंगाजल

8 जुलाई 1991

100किसी ने शायद सच ही कहा था ‘एक जुझारु विक्रेता (सेल्समैन) तो रेत के टीले के गुणों का बखान कर उसे भी बेच सकता है।‘ संभवतः इसी तर्ज के ‘इनोवेटिव‘ विज्ञापन-विपणन-विक्रय की सख्त जरूरत वर्तमान समय में जितनी पहले कभी महसूस नहीं हुई है। आज प्रदेश-देश-विदेश के बाजारों में वस्तुओं और सेवाओं की सुगम उपलब्धि की इतनी बहुतायत है कि ग्राहक को आकर्षित करने हेतु हर संभव-असंभव प्रयास करना पड़ता है।

इस अत्यंत प्रतिस्पर्धी माहौल में अंततः बाजी वही मार लेता है, जो या तो नित नए लुभावने ढंग से ग्राहकों तक अपना संदेश पहुंचाता है अथवा कोई ऐसी वस्तु सेवा का ‘अनछुआ क्षेत्र‘ खोजने और विकसित करने का जोखिमभरा बीड़ा उठाता है, जो ग्राहक की किसी आवश्यकता की आपूर्ति करता हो। इन्हीं दोनों आयामों को आधार स्तंभ मानते हुए पिछले दिनों दो बिलकुल भिन्न श्रेणी के ‘कैम्पेन‘ ने सभी को अचंभित कर दिया। दोनों ही के बाजार निर्माता, विक्रेता, ग्राहक और विज्ञापन के तौर-तरीके में कोई समानता नहीं थी। अगर समानता थी तो सिर्फ यही कि दोनों ही ने एकदम ताजी नवीन शैली का प्रयोग किया और प्रशंसनीय सफलता अर्जित की।

सिनेमा में बाजार

टीवी-वीडियो के आक्रमण के पश्चात छबिगृहों में दर्शकों की लंबी कतारें (सप्ताहांत के अलावा) अब एक दुर्लभ दृश्य बन गई हैं। फिल्म चाहे कितनी ही अच्छी क्यों न हो, 3-4 सप्ताह में तो टिकट खिड़की पर सन्नाटा छा ही जाता है। लेकिन दक्षिण बंबई में स्थित ‘ईरोस‘ सिनेमागह में तो यह दुर्लभ दृश्य लगभग 22 हफ्तों तक लगातार देखने को मिला। छबिगृह में उस समय प्रदर्शित अंग्रेजी फिल्म ‘प्रिटी वूमन’ ने निःसंदेह हर जगह धूम मचा दी थी, परंतु ‘ईरोस’ में उमड़ पड़ी अपार भीड़ का कारण महज फिल्म की लोकप्रियता नहीं था।

अगर समानता थी तो सिर्फ यही कि दोनों ही ने एकदम ताजी नवीन शैली का प्रयोग किया और प्रशंसनीय सफलता अर्जित की

यह अजीबो-गरीब सा प्रतीत होने वाला कारण था सिनेमा में घटती दर्शक संख्या और जेवरात के बाजार में कड़ी प्रतिस्पर्धा से उभर पाने हेतु की गई एक अनूठी जुगलबंदी, जिसने संगत कर रहे दोनों ही सहभागियों को बहुत लाभ पहुंचाया। ‘ईरोस’ सिनेमा हॉल के मालिक और फिल्म ‘प्रिटी वूमन‘ के वितरक वॉर्नर ब्रदर्स (सुदूर पूर्व) एवं ‘एस्टैल‘ ब्रांड के फैशनेबल गहनों के निर्माता नोर्मेक फैशंस, दोनों ही का ग्राहक वर्ग नौजवान पीढ़ी थी। इस ग्राहक वर्ग को एक ही समय में कारगर ढंग से आकर्षित करने के लिए इन दोनों ने आपस में अनुबंध कर लिया।

सिनेमा हॉल के समूचे प्रांगण, अहाते, गलियारे को जैसे एस्टैल जेवरात के एक वृहद ‘शो रूम‘ में परिवर्तित कर दिया गया था। युवा वर्ग को लुभाने हेतु बहुत प्रचार-प्रसार कर ‘एस्टैल फेस 91‘ नामक सौंदर्य प्रतियोगिता की घोषणा की गई। प्रत्येक सप्ताह फिल्म देखने आई युवतियों में से सबसे सुंदर का चुनाव ‘सप्ताह सुंदरी‘ के रूप में किया जाने लगा। फिर ‘एस्टैल जेवरात‘ में सजी-धजी उस युवती का चित्र परिसर में कई स्थानों पर प्रदर्शित किया गया। बस, बंबई शहर के सभी कॉलेजों में मानो होड़-सी लग गई कि किस कॉलेज की छात्राएं सर्वाधिक बार ‘सप्ताह सुंदरी‘ का खिताब हासिल करती हैं। टिकट खिड़की पर युवा दर्शकों की कतारें घंटों पहले लगने लग गईं और एस्टैल जेवरात सभी जगह चर्चा का विषय बन गए।

इस अनोखी स्कीम की आशातीत सफलता ने सिनेमा मालिकों और जेवरात निर्माताओं दोनों ही को स्तंभित कर दिया। वॉर्नर ब्रदर्स (सुदूर पूर्व) के अनुसार टिकटों की बिक्री ने बॉक्स ऑफिस के कई नए कीर्तिमान स्थापित किए और तीसरे सप्ताह का 1,68,830 रुपए का ‘क्लेक्शन’ भारत में वॉर्नर ब्रदर्स की सर्वकालिक सर्वाधिक कमाई है। वहीं दूसरी ओर नोर्मेक फैशंस की सिनेमा परिसर में जेवरात बिक्री 9,000 रुपए प्रतिदिन तक पहुंच गई। अनुबंध के तहत नोर्मेक फैशंस ने फिल्म का पूरा विज्ञापन का खर्च एवं 15,000 रुपए प्रति सप्ताह का प्रायोजन शुल्क वहन किया। बदले में ‘ईरोस‘ सिनेमागृह ने उन्हें सिनेमा परिसर में जेवरात के भरपूर प्रचार-प्रसार एवं बिक्री की अनुमति दी थी। इस स्कीम का चरमोत्कर्ष सौ दिनों के पश्चात ‘सप्ताह सुंदरी’ में से सर्वश्रेष्ठ को ‘एस्टैल फेस 91‘ का खिताब देकर हुआ॥ ‘ईरोस‘ सिनेमा में पहले भी इस प्रकार का प्रयोग किया जा चुका है। अंग्रेजी फिल्म ‘हू फ्रेम्ड रोजर रेबिट‘ के समय एक घड़ी निर्माता के साथ ऐसा ही अनुबंध हुआ था। स्कीम की सफलता को देखते हुए उसके भविष्य में भी दोहराए जाने की संभावना है।

कठौती में गंगा

आइए, फिल्मों के कृत्रिम ग्लैमर और जेवरात की चकाचौंध से बहुत दूर किसी शाश्वत, अविरल पदार्थ की ओर चलते हैं, जो अनादि काल से हमारे बीच मौजूद है। हां, वर्तमान में ‘मार्केटिंग‘ के पंडितों की चर्चा में उसका जिक्र अवश्य उठ आता है। भारतीय जीवन में गंगा का स्थान महज एक नदी भर से कहीं ऊपर है। हमारी पीढ़ियों से चली आ रही आस्थाओं, निष्ठा एवं धर्मपरायणता का वह एक सजीव प्रतिबिंब है। जन्म से मरण तक हर महत्वपूर्ण मोड़ पर भारत के लाखों घरों में अत्यंत आस्था और विश्वास से संग्रहीत गंगाजल शुद्धि और मुक्ति के सनातन प्रतीक के रूप में ग्रहण किया जाता है।

जिस गंगाजल के बारे में प्रसिद्ध है कि स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने में उसके वेग को सह पाने की शक्ति भगवान शिव की जटाओं के अतिरिक्त किसी में नहीं थी, वही गंगाजल अब ‘फोइल पैकिंग‘ के पाउच में बंद कर सारे भारत में दुकानों पर उपलब्ध होने वाला है। गंगोत्री मिनरल्स नामक कंपनी के व्यवस्थापक वी.पी. गुप्ता और ए.पी. गुप्ता ने सारे भारत में ‘गंगाजल‘ की ‘खपत‘ को पूरा करने हेतु गंगा के उद्‌गम गंगोत्री में एक आधुनिक स्वचालित संयंत्र लगाया है। इसके द्वारा पूर्णतः शुद्ध-स्वच्छ गंगाजल 200 मि.मी. के पैकेट में बंद कर ‘गंगोत्री‘ नाम से बाजार में पांच रुपए में विक्रय के लिए पेश किया गया है। गुप्ता बंधुओं के अनुसार इस पुण्य कार्य हेतु लिए गए पांच रुपए गंगा-जल की कीमत नहीं, वरन ‘सेवा शुल्क‘ है। उनका यह भी कहना है कि वे यह कार्य सिर्फ जनहित के लिए कर रहे हैं और उससे प्राप्त संपूर्ण आमदनी पारमार्थिक कार्यों में ही लगाई जाएगी।

पैकेट बंद गंगाजल ‘मार्केटिंग‘ के मान से तो एक क्रांतिकारी विचार है। सहूलियत के मान से भी इससे सुदूर क्षेत्रों में रहने वाले भारतीयों को सरलता से गंगाजल उपलब्ध हो जाएगा, परंतु सर्वाधिक प्रश्न तो आस्था और निष्ठा की कसौटी पर कसे जाएंगे। क्या हजारों मील की यात्रा करने के बाद गंगाजल स्नान और सेवन के पुण्य अब घर बैठे ही मिल जाएंगे? क्या पैकेट बंद गंगाजल भी वही श्रद्धा और आस्था जाग्रत करेगा? पुराने विचार वाले इस गंगाजल की शुद्धि का सत्यापन किससे मांगेंगे? और क्या गंगाजल जैसी व्यापक चीज को पैकेट बंद करने का अधिकार किसी एक संस्था को प्राप्त है? प्रश्न तो हजारों उठ सकते हैं, बस इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि आधुनिक परिवेश ने परिवर्तन को इतना गतिशील बना दिया है कि कल तक सिर्फ तीर्थस्थलों और श्लोकों तक सीमित नर्मदा आज नल तक पहुंच गई और गंगा पैकेट बंद होकर किराने की दुकान तक। आगे-आगे देखिए होता है क्या?

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