हर्षद मेहता-हरिदास मूंदड़ा : पंछी एक डाल के?

13 जून 1992

प्रस्ताव फिर प्रस्ताव

23 जून को पटेल, कामत और पी.सी. भट्‌टाचार्य (स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के अध्यक्ष) ने मूंदड़ा से एक संयुक्त मुलाकात में जीवन बीमा निगम को शेयर बेचने के प्रस्ताव को पुनः परिवर्तित प्रारूप में पेश करने को कहा, जिसका ब्यौरा हरिदास मूंदड़ा ने 23 जून 1957 को एच.एम. पटेल को अपनी दूसरी चिट्‌ठी में दिया।

इस दूसरे पत्र की शुरुआत में मूंदड़ा ने पटेल, भट्टाचार्य एवं कामत को धन्यवाद देते हुए विभिन्न शेयरों की सूची देकर उनकी एलआईसी को बाजार मूल्य से कीमत 94,54,000 रुपए की बताई।

शेयरों का व्यवसाय

किंतु अगले ही दिन (24 जून 1957) को हरिदास मूंदड़ा ने पटेल को पुनः एक पत्र लिखकर सूचित किया कि वे विभिन्न प्रकार के शेयर उनके दलालों के पास हैं, जिनकी वे स्वयं ‘डिलीवरी’ ले रहे हैं। इस पत्र में इन शेयरों का मूल्य 1,19,49,500 रुपए बताया गया। उसी दिन (24 जून) और अगले दिन (25 जून) को जीवन बीमा निगम के प्रबंध निदेशक एल.एस. वैद्यनाथन ने हरिदास मूंदड़ा से कोलकाता स्टॉक एक्सचेंज के बाजार भावों के आधार पर ब्रिटिश इंडिया कॉर्पोरेशन के 70 लाख साधारण शेयर, जैसप एंड कंपनी के 78 हजार साधारण और 6000 प्रिफरेंस शेयर, रिचर्डसन एंड क्रूडास के 15 हजार साधारण और 19 हजार प्रिफरेन्स शेयर एवं ओसलर लैंप मैन्यूफैक्चरिंग कंपनी के छः हजार प्रिफरेंस व एक हजार साधारण शेयर खरीद लिए। इस पूरे ‘लॉट‘ का जीवन बीमा निगम ने बाजार भावों पर मूंदड़ा को भुगतान किया 1,26,85,750 रुपए का।

दूसरे शब्दों में, हरिदास मूंदड़ा की दो दिन पहले अर्थात्‌ 23 जून की चिट्‌ठी में लिखे भावों के हिसाब से भी मूल्य 7 लाख रुपए बढ़ चुके थे। सीधी-सी बात थी, जीवन बीमा निगम द्वारा शेयर बाजार को बहुत तेज कर दिया, ताकि उनके शेयरों के दामों में महती वृद्धि हो जाए। मामला सिर्फ अधिक कीमत वसूलने पर ही खत्म नहीं हुआ। जब इन शेयरों के जीवन बीमा निगम के नाम पर ‘ट्रांसफर‘ करवाने का समय आया, तो यह पाया गया कि कई शेयर सर्टिफिकेट तो सिर्फ प्रतिलिपियां थीं, क्योंकि मूल सर्टिफिकेट तो पहले ही कहीं गिरवी रखे जा चुके थे। यानी, मूंदड़ा ने जो शेयर जीवन बीमा निगम को बेचकर उनसे भुगतान भी ले लिया था, वे शेयर तो पहले ही किसी अन्य के पास गिरवी रखे हुए थे।

इसके अतिरिक्त जीवन बीमा निगम ने उस वर्ष मार्च-अप्रैल व सितंबर माह में हरिदास मूंदड़ा से संबंधित कंपनियों (जैसप एंड कंपनी, रिचर्ड्‌सन एंड क्रूडास) के शेयर सीधे हरिदास मूंदड़ा से अथवा बाजार से खरीदे थे। इनमें से सितंबर 57 में खरीदे गए अधिकांश शेयर निगम की निवेश समिति की सलाह लिए बगैर खरीदे गए थे। न सिर्फ ये बल्कि यह खरीदी लोकसभा में हरिदास मूंदड़ा के विषय में प्रश्न उठ जाने के बाद भी जारी रही।

यूँ उठा पहला सवाल

4 सितंबर 1957 को डॉ. रामसुभाग सिंह ने एक अखबार में प्रकाशित समाचार का हवाला देते हुए वित्तमंत्री से सामान्य प्रक्रिया में प्रश्न किया कि (1) वित्तमंत्री सदन को कानपुर में मुख्यालय वाली उस कंपनी का नाम बताएं, जिसमें जीवन बीमा निगम ने एक करोड़ रुपए से अधिक का निवेश किया है। (2) निवेश की गई कुल राशि कितनी है? (3) किसी निजी कंपनी में एलआईसी के निवेश के क्या कारण हैं?

सामान्य-सी जानकारी प्राप्त करने हेतु पूछे गए इस प्रश्न का आकार इतना बड़ा हो जाएगा, यह किसी को सपने में भी आभास नहीं हुआ था। और, विडंबना तो यह है कि इस प्रश्न को वहीं का वहीं संतोषजनक उत्तर देकर ‘समाप्त‘ करने के बजाय ‘टालमटूली‘ करने पर अंततः वित्तमंत्री को ही अपनी कुर्सी से हाथ धोना पड़ा। हालांकि, वित्तमंत्री की उस ‘कुर्बानी‘ के कारण राष्ट्र को बहुत लाभ हुआ और सार्वजनिक निगमों में जमा जनता के धन का निजी हितों हेतु उपयोग नहीं किए जाने पर कड़ी निगरानी और नियंत्रण प्रणाली की मांग को बल मिला।

वैसे उस प्रश्न के विषय में न्यायमूर्ति चागला ने अपने संस्मरणों में लिखा है, टी.टी.के. अगर उसी दिन जीवन बीमा निगम से संबंधित प्रश्न का उत्तर दे देते तो हो सकता था कि संसद में मामले की निंदा होती, शायद उस पर बहस होती लेकिन मामला थोड़े ही समय में शांत हो जाता। टीटी कृष्णमाचारी निःसंदेह भारत के सबसे काबिल वित्त मंत्रियों में से हैं, किंतु इसके साथ शायद उनमें थोड़ा ‘गर्व‘ का भाव है। इसी अनुभूति ने उनमें संभवतः इस विचार को जन्म दे दिया कि अधिकांश सांसद वित्त के विषयों में नासमझ होते हैं और उन्हें किसी निवेश की बारीकियों का ब्यौरा देना समय बरबाद करने के बराबर है।

टी.टी.के. की भूल

बस, यहीं टी.टी.के. भूल कर बैठे। संसद की अपनी एक गरिमा और प्रतिष्ठा होती है। किसी भी मंत्री की त्रुटि या भूल को संसद माफ कर सकती है, किंतु अगर कोई मंत्री अपने आपको संसद से भी अधिक सक्षम मानकर स्थापित प्रणाली को नजरअंदाज करने का प्रयास करता है, तो यह संसदीय व्यवस्था में कदापि बर्दाश्त नहीं किया जा सकता फिर वह मंत्री कितना ही वरिष्ठ, महत्वपूर्ण और प्रभावशाली क्यों न हो?

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