हर्षद मेहता-हरिदास मूंदड़ा : पंछी एक डाल के?

13 जून 1992

हर्षद मेहता-हरिदास मूंदड़ा : पंछी एक डाल के?कुछ दिनों पहले तक, जब हर्षद मेहता का सितारा बीएसई इंडेक्स के कदम से कदम मिलाकर निरंतर बुलंदी के नए क्षितिज छू रहा था, तब हर ओर हर्षद के विवरण के लिए एक ही जुमला था- ‘न भूतो न भविष्यति‘ (न कभी पहले ऐसा हुआ, न भविष्य में होगा)। दूसरे शब्दों में, हर्षद की बिजली-सी चपल किंतु ‘जी.जी. भाई टॉवर‘ से आंखें मिलाती वित्तीय सफलता की तुलना सिर्फ एक ही व्यक्ति से की जा सकती थी, खुद हर्षद से।

कॉन-मैन या विजार्ड

परंतु जैसे ही पासे उलटे पड़ने लगे, हर्षद के सितारे धूमिल होने लगे, प्रतिभूति शेयर कांड में उनका नाम प्रमुख ‘कर्ता-धर्ता’ के रूप में उछलने लगा और उन्हें ‘फाइनेंशियल विजार्ड‘ के बजाय ‘कॉन-मैन’ कहा जाने लगा, तभी से ‘किंग-बुल‘ को ‘डिस्क्राइब‘ करने के तरीके में थोड़ा फर्क आ गया है। बदले माहौल में लोग कहने लगे हैं, ‘इस एच.एम. (हर्षद मेहता) ने तो 35 वर्षों पूर्व के एच.एम. (हरिदास मूंदड़ा) की यादें ताजा कर दी हैं। हां, तब मामला सिर्फ डेढ़ करोड़ रुपए का था और आज बात हजारों करोड़ रुपए की है।’

हरिदास-हर्षद

तुरंत एक अत्यंत स्वाभाविक-सा सवाल उभरता है कि आखिर ये हरिदास मूंदड़ा ऐसी क्या शख्सियत थी जिनकी तुलना हर्षद मेहता से की जा रही है?

चूंकि यह मामला सन्‌ 1957-58 से संबंधित है, इसलिए आजाद भारत में जन्मे चुनिंदा नागरिकों को ही इसकी विस्तृत जानकारी होगी। हां, इतना जरूर है कि व्यापार-व्यवसाय-वाणिज्य से प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से जुड़े लोगों ने कभी न कभी तो इस नाम का जिक्र सुना ही होगा। जिनकी जानकारी सामान्य से कुछ अधिक होगी, वे यहां तक बता देंगे कि हरिदास मूंदड़ा ने एलआईसी (जीवन बीमा निगम) से शेयरों की खरीद-फरोख्त में कुछ घोटाला किया था, जिनकी जांच बंबई उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एम.सी. चागला ने की थी, जिसके परिणामस्वरूप हरिदास मूंदड़ा को जेल हो गई थी। किसी भी व्यक्ति की याददाश्त में इस घटना में विशिष्ट तौर पर दर्ज होने का प्रमुख कारण यह है कि जांच आयोग की सिफारिशों के फलस्वरूप तत्कालीन केंद्रीय वित्तमंत्री टी.टी. कृष्णमाचारी को इस्तीफा देना पड़ा था।

तुरंत एक अत्यंत स्वाभाविक-सा सवाल उभरता है कि आखिर ये हरिदास मूंदड़ा ऐसी क्या शख्सियत थी जिनकी तुलना हर्षद मेहता से की जा रही है?

परंतु, इससे अधिक 35 वर्षों पुराना वह मामला किसी को ध्यान हो, ऐसे बिरले ही होंगे। वर्तमान आर्थिक परिप्रेक्ष्य के चलते ‘हरिदास मूंदड़ा कांड‘ के विस्मृत पहलुओं को उजागर करने के दो मुख्य उद्देश्य हैं। पहला और स्वाभाविक कारण तो लोगों की हरिदास मूंदड़ा से संबद्ध मामले की विस्तृत जानकारी की जिज्ञासा को यथासंभव पूरी करना है। किंतु, दूसरा और महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि उस समय किन परिस्थितियों में एक व्यक्ति ने सरकार और उसके द्वारा नियंत्रित निगम को इच्छानुसार ‘मना‘ लिया, मामला कैसे सामने आया, उसकी जांच प्रक्रिया के दौरान किन खामियों और कमजोरियों पर प्रकाश डाला गया और क्या वे सभी आवश्यक कदम उठाए गए जिससे ऐसे मामलों की पुनरावृत्ति संभव न हो। अन्य सभी सवालों का जवाब तो लेख में मिल जाएगा, किंतु अंतिम और ‘इतिहास की पुनरावृत्ति‘ के अहम सवाल का प्रश्नचिह्न अभी भी बरकरार है। वर्तमान प्रतिभूति कांड से यह तो स्पष्ट झलक रहा है कि ‘सिस्टम’ पूर्णतः दोषरहित और ‘लीक-प्रूफ’ अब भी नहीं है। अब विचारणीय पहलू यह है कि या तो हरिदास मूंदड़ा मामले के बाद भी सरकार ने प्रणाली सुधार के कारगर कदम नहीं उठाए थे, अथवा उस एच.एम. से इस एच.एम. तक के लंबे अंतराल और बदलती कार्य-शैलियों से नियंत्रण प्रणाली पिछड़ गई है।

टी.टी.के. और एल.आई.सी.

तो आइए, आपको ए.सी.सी.- बी.एस.ई.- सी.बी.आई.- के माहौल से टी.टी.के.- एल.आई.सी. के युग में लिए चलते हैं। एक बात अवश्य कहना पड़ेगी, दोनों ही में ‘हीरो’ का नाम वहीं है- जी हां, ‘एच.एम.।’

स्वतंत्र भारत के इतिहास में जीवन बीमा निगम (एल.आई.सी.) पहला वह वित्तीय संस्थान था, जिसे सीधे बाजार से शेयर खरीदने-बेचने का अधिकार प्राप्त हुआ था। केंद्रीय वित्तमंत्री सी.डी. देशमुख के कार्यकाल के दौरान 19 जनवरी 1956 को सरकार ने अध्यादेश जारी कर जीवन बीमा निगम का राष्ट्रीयकरण कर दिया था। इस वक्त तक न तो यूनिट ट्रस्ट और न आई.डी.बी., आई.सी.आई.सी.आई. जैसे वित्तीय संस्थानों का उदय हुआ था, न ही शेयर बाजार के कामकाज की पेचीदगियों से सामान्य जनता परिचित थी। इस मायने से एलआईसी का महत्व तब अत्याधिक था। एलआईसी के राष्ट्रीयकरण के साथ ही उनके कार्यक्षेत्र और प्रणाली का विस्तृत रेखांकन कर दिया गया था। निगम को उसकी कार्यकारी परिषद के नियंत्रण में पूर्णतः स्वायत्त संस्था के रूप में कार्य करने की छूट थी और अपने साधनों का सरकार की मुलभूत नीतियों को मद्देनजर रखते हुए निवेश करने का अधिकार था। हालांकि निवेश का यह अधिकार अंततः कार्यकारी परिषद को ही था, परंतु वह निर्णय एक पृथक निवेश समिति की सिफारिशों के आधार पर ही लिया जा सकता था। छः सदस्यीय निवेश समिति में निगम के अध्यक्ष, प्रबंध निदेशक के अलावा बंबई-कोलकाता स्टॉक एक्सचेंजों के अध्यक्ष भी सदस्य थे।

कानपुर से कोलकाता तक

मूलतः कानपुर के निवासी हरिदास मूंदड़ा कोलकाता स्टॉक एक्सचेंज के बड़े सटोरिए थे, किंतु उनके अरमान सदैव एक विख्यात उद्योगपति बनने के थे। इस ख्वाब के नैपथ्य में कुछ योगदान हरिदास मूंदड़ा के बिड़ला घराने से पारिवारिक रिश्तेदारी का भी रहा होगा।

माधोप्रसाद बिड़ला, हरिदास मूंदड़ा के एकमात्र दामाद, काशीनाथ तापड़िया के सगे बहनोई थे। हरिदास मूंदड़ा के व्यक्तित्व का वर्णन करते हुए न्यायमूर्ति चागला ने कहा था, मूंदड़ा एक प्रभावी व्यक्तित्व के स्वामी थे जिनकी एकमात्र इच्छा, ‘साम-दाम-दंड-भेद का बेहिचक उपयोग करते हुए उद्योगों के समूह पर आधिपत्य जमाना था। अत्यंत साधारण परिस्थितियों से उठकर, बगैर शिक्षा और साधनों के उन्होंने कई बड़ी इकाइयों पर कब्जा जमाने में सफलता प्राप्त कर ली थी। किंतु उनका ध्येय इन इकाइयों और उनके जरिये, राष्ट्र की औद्योगिक प्रगति में कोई योगदान देने का कदापि नहीं है। सही मायने में तो वे एक उद्योगपति हैं ही नहीं- उनका लक्ष्य तो सिर्फ अपनी ‘वित्तीय चपलताओं’ से कंपनी के बाद कंपनी को अपने झंडे तले इकट्‌ठे करना है, उन्हें चलाना-बढ़ाना नहीं।

मुलाकात कैसे हुई

न्यायमूर्ति चागला की समीक्षा को देखते हुए आज के गोयनका- छाबरिया की कंपनी अधिग्रहण प्रवृत्तियों को देखते हुए उनके लिए उपयुक्त शब्द (कॉर्पोरेट-रेंडर हरिदास मूंदड़ा) का सही विवरण हो सकता है। 18 जून 1975 के दिन यही हरिदास मूंदड़ा कोलकाता में व्यापार-व्यवसाय से जुड़े लोगों की सभा में श्रोता के रूप में तत्कालीन केंद्रीय वित्तमंत्री टी.टी. कृष्णामाचारी का भाषण सुनने आए थे। उस सभा में तत्कालीन केंद्रीय वित्त सचिव एच.एम. पटेल भी मोजूद थे, जो कि दो दिन बाद बंबई के लिए प्रस्थान कर गए।

तो आइए, आपको ए.सी.सी.- बी.एस.ई.- सी.बी.आई.- के माहौल से टी.टी.के.- एल.आई.सी. के युग में लिए चलते हैं। एक बात अवश्य कहना पड़ेगी, दोनों ही में ‘हीरो’ का नाम वहीं है- जी हां, ‘एच.एम.।’

21 जून 57 को बंबई में हरिदास मूंदड़ा ने एच.एम. पटेल से मुलाकात का समय मांगा, जिनकी उन्हें तुरंत उसी दिन के लिए स्वीकृति (?) मिल गई। उस ‘ऐतिहासिक‘ मुलाकात में हरिदास मूंदड़ा ने पटेल को अपनी वित्तीय कठिनाइयों का ब्योरा देते हुए कहा कि वैसे तो उनकी मुक्त संपत्ति 1.55 करोड़ रुपए की थी, लेकिन शेयर दलालों और बैंकों को उनकी देनदारियां 5.24 करोड़ रुपए तक पहुंच गई थी। ऐसी हालत में अगर कर्ज अदायगी हेतु दलालों ने उन पर जोर दिया तो उन्हें भारी मात्रा में शेयर बाजार में बेचने पड़ेंगे, जिससे स्वयं उन पर और शेयर बाजार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। इस विषम परिस्थिति से उबरने के लिए मूंदड़ा ने पटेल से मौखिक आग्रह किया कि जीवन बीमा निगम मूंदड़ा से छः लिमिटेड कंपनियों (एंजेलो ब्रदर्स, ब्रिटिश इंडिया कॉर्पोरेशन, स्मिथ स्टैन स्ट्रीट एंड कंपनी, जैसप एंड कंपनी, रिचर्ड्‌सन एंड क्रूडास एवं ओसलर लैम्प मैन्युफैक्चरिंग कंपनी) के 80 लाख रुपए मूल्य के शेयर खरीदे और 30-40 लाख रुपए के शेयर सीधे बाजार से खरीदे। जीवन बीमा निगम मूंदड़ा को एक करोड़ रुपए का ऋण स्वीकृत कर दे जिसके बदले में मूंदड़ा निगम को एक करोड़ रुपए का व्यवसाय दिलाएंगे। निगम ब्रिटिश इंडिया कार्पोरेशन और जैसप एंड कंपनी के नवीन निर्गमों में ‘प्रिफरेंस कोटा‘ के 1.25 करोड़ रुपए के शेयर खरीदे, जिसके बदले मूंदड़ा निगम को 1.25 करोड़ रुपए का अग्नि बीमा व्यवसाय दिलवाएंगे।

एच.एम. पटेल ने उस वक्त कोई वायदा न करते हुए सिर्फ मूंदड़ा को अपना पूरा प्रस्ताव लिखित में देने को कहा, जो कि हरिदास मूंदड़ा ने उसी दिन (21 जून 1957) को उन्हें बंबई में ही दे दिया। 22 जून को पटेल ने इन प्रस्तावों की चर्चा जीवन बीमा निगम के अध्यक्ष जी.आर. कामत से की। कामत विभिन्न कंपनियों के शेयर खरीदने के अलावा और किसी प्रस्ताव पर विचार करने को तैयार नहीं थे।

प्रस्ताव फिर प्रस्ताव

23 जून को पटेल, कामत और पी.सी. भट्‌टाचार्य (स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के अध्यक्ष) ने मूंदड़ा से एक संयुक्त मुलाकात में जीवन बीमा निगम को शेयर बेचने के प्रस्ताव को पुनः परिवर्तित प्रारूप में पेश करने को कहा, जिसका ब्यौरा हरिदास मूंदड़ा ने 23 जून 1957 को एच.एम. पटेल को अपनी दूसरी चिट्‌ठी में दिया।

इस दूसरे पत्र की शुरुआत में मूंदड़ा ने पटेल, भट्टाचार्य एवं कामत को धन्यवाद देते हुए विभिन्न शेयरों की सूची देकर उनकी एलआईसी को बाजार मूल्य से कीमत 94,54,000 रुपए की बताई।

शेयरों का व्यवसाय

किंतु अगले ही दिन (24 जून 1957) को हरिदास मूंदड़ा ने पटेल को पुनः एक पत्र लिखकर सूचित किया कि वे विभिन्न प्रकार के शेयर उनके दलालों के पास हैं, जिनकी वे स्वयं ‘डिलीवरी’ ले रहे हैं। इस पत्र में इन शेयरों का मूल्य 1,19,49,500 रुपए बताया गया। उसी दिन (24 जून) और अगले दिन (25 जून) को जीवन बीमा निगम के प्रबंध निदेशक एल.एस. वैद्यनाथन ने हरिदास मूंदड़ा से कोलकाता स्टॉक एक्सचेंज के बाजार भावों के आधार पर ब्रिटिश इंडिया कॉर्पोरेशन के 70 लाख साधारण शेयर, जैसप एंड कंपनी के 78 हजार साधारण और 6000 प्रिफरेंस शेयर, रिचर्डसन एंड क्रूडास के 15 हजार साधारण और 19 हजार प्रिफरेन्स शेयर एवं ओसलर लैंप मैन्यूफैक्चरिंग कंपनी के छः हजार प्रिफरेंस व एक हजार साधारण शेयर खरीद लिए। इस पूरे ‘लॉट‘ का जीवन बीमा निगम ने बाजार भावों पर मूंदड़ा को भुगतान किया 1,26,85,750 रुपए का।

दूसरे शब्दों में, हरिदास मूंदड़ा की दो दिन पहले अर्थात्‌ 23 जून की चिट्‌ठी में लिखे भावों के हिसाब से भी मूल्य 7 लाख रुपए बढ़ चुके थे। सीधी-सी बात थी, जीवन बीमा निगम द्वारा शेयर बाजार को बहुत तेज कर दिया, ताकि उनके शेयरों के दामों में महती वृद्धि हो जाए। मामला सिर्फ अधिक कीमत वसूलने पर ही खत्म नहीं हुआ। जब इन शेयरों के जीवन बीमा निगम के नाम पर ‘ट्रांसफर‘ करवाने का समय आया, तो यह पाया गया कि कई शेयर सर्टिफिकेट तो सिर्फ प्रतिलिपियां थीं, क्योंकि मूल सर्टिफिकेट तो पहले ही कहीं गिरवी रखे जा चुके थे। यानी, मूंदड़ा ने जो शेयर जीवन बीमा निगम को बेचकर उनसे भुगतान भी ले लिया था, वे शेयर तो पहले ही किसी अन्य के पास गिरवी रखे हुए थे।

इसके अतिरिक्त जीवन बीमा निगम ने उस वर्ष मार्च-अप्रैल व सितंबर माह में हरिदास मूंदड़ा से संबंधित कंपनियों (जैसप एंड कंपनी, रिचर्ड्‌सन एंड क्रूडास) के शेयर सीधे हरिदास मूंदड़ा से अथवा बाजार से खरीदे थे। इनमें से सितंबर 57 में खरीदे गए अधिकांश शेयर निगम की निवेश समिति की सलाह लिए बगैर खरीदे गए थे। न सिर्फ ये बल्कि यह खरीदी लोकसभा में हरिदास मूंदड़ा के विषय में प्रश्न उठ जाने के बाद भी जारी रही।

यूँ उठा पहला सवाल

4 सितंबर 1957 को डॉ. रामसुभाग सिंह ने एक अखबार में प्रकाशित समाचार का हवाला देते हुए वित्तमंत्री से सामान्य प्रक्रिया में प्रश्न किया कि (1) वित्तमंत्री सदन को कानपुर में मुख्यालय वाली उस कंपनी का नाम बताएं, जिसमें जीवन बीमा निगम ने एक करोड़ रुपए से अधिक का निवेश किया है। (2) निवेश की गई कुल राशि कितनी है? (3) किसी निजी कंपनी में एलआईसी के निवेश के क्या कारण हैं?

सामान्य-सी जानकारी प्राप्त करने हेतु पूछे गए इस प्रश्न का आकार इतना बड़ा हो जाएगा, यह किसी को सपने में भी आभास नहीं हुआ था। और, विडंबना तो यह है कि इस प्रश्न को वहीं का वहीं संतोषजनक उत्तर देकर ‘समाप्त‘ करने के बजाय ‘टालमटूली‘ करने पर अंततः वित्तमंत्री को ही अपनी कुर्सी से हाथ धोना पड़ा। हालांकि, वित्तमंत्री की उस ‘कुर्बानी‘ के कारण राष्ट्र को बहुत लाभ हुआ और सार्वजनिक निगमों में जमा जनता के धन का निजी हितों हेतु उपयोग नहीं किए जाने पर कड़ी निगरानी और नियंत्रण प्रणाली की मांग को बल मिला।

वैसे उस प्रश्न के विषय में न्यायमूर्ति चागला ने अपने संस्मरणों में लिखा है, टी.टी.के. अगर उसी दिन जीवन बीमा निगम से संबंधित प्रश्न का उत्तर दे देते तो हो सकता था कि संसद में मामले की निंदा होती, शायद उस पर बहस होती लेकिन मामला थोड़े ही समय में शांत हो जाता। टीटी कृष्णमाचारी निःसंदेह भारत के सबसे काबिल वित्त मंत्रियों में से हैं, किंतु इसके साथ शायद उनमें थोड़ा ‘गर्व‘ का भाव है। इसी अनुभूति ने उनमें संभवतः इस विचार को जन्म दे दिया कि अधिकांश सांसद वित्त के विषयों में नासमझ होते हैं और उन्हें किसी निवेश की बारीकियों का ब्यौरा देना समय बरबाद करने के बराबर है।

टी.टी.के. की भूल

बस, यहीं टी.टी.के. भूल कर बैठे। संसद की अपनी एक गरिमा और प्रतिष्ठा होती है। किसी भी मंत्री की त्रुटि या भूल को संसद माफ कर सकती है, किंतु अगर कोई मंत्री अपने आपको संसद से भी अधिक सक्षम मानकर स्थापित प्रणाली को नजरअंदाज करने का प्रयास करता है, तो यह संसदीय व्यवस्था में कदापि बर्दाश्त नहीं किया जा सकता फिर वह मंत्री कितना ही वरिष्ठ, महत्वपूर्ण और प्रभावशाली क्यों न हो?

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