इराक और युद्ध के बीच सिर्फ चंद लम्हे

17 मार्च 2003

वर्तमान प्रशासन की इस करनी पर तो जॉर्ज बुश प्रथम भी चुप नहीं रह सके कि अमेरिका को विश्व के राष्ट्रों से अपने संबंध सुधारने पड़ेंगे। अमेरिकी मीडिया के अनुसार वो कोलिन पावेल हैं तो अमेरिका फिर भी दूसरों की थोड़ी सुनता है, अन्यथा रक्षामंत्री रम्सफेल्ड ने तो फ्रांस, जर्मनी, सुरक्षा परिषद और यहां तक कि सार्वजनिक रूप से इराक युद्ध के लिए इंग्लैंड के समर्थन को भी ‘जरूरी नहीं‘ करार दे दिया।

यह सही है कि फ्रांस और रूस दोनों के इराक में आर्थिक स्वार्थ निहित हैं जो लड़ाई के बाद खटाई में पड़ जाएंगे और सद्‌दाम की तानाशाही और अत्याचार जग-जाहिर है। चूक रही है तो अमेरिका के सारी दुनिया को साथ में लेकर चलने के बजाय ‘नजर-अंदाज’ करने की शैली में। अमेरिका निर्विवाद रूप से वर्तमान विश्व का एकमात्र आर्थिक और सामरिक ‘सुपर पावर‘ है, अमेरिका का सालाना रक्षा व्यय सारी दुनिया के बाकी 191 देशों के रक्षा व्यय के जोड़ से भी अधिक है। अमेरिका का 10 ट्रिलियन (एक करोड़ खरब, पद्‌म) डॉलर की अर्थव्यवस्था 2,3 और 4 नंबर पर जापान, जर्मनी और इंग्लैंड के जोड़ से भी अधिक है, पूरी दुनिया में हो रहे शोध कार्य का 50 प्रतिशत कार्य सिर्फ अमेरिका में होता है। लेकिन फिर सारे विश्व में अमेरिका विरोधी ऐसी लहर क्यों?

न्यूज वीक‘ पत्रिका के संपादक फरीद जकारिया के अनुसार 1945 में भी अमेरिका विश्व में इतना ही शक्तिशाली था, लेकिन तब रूजवेल्ट और ट्रुमन ने अमेरिकी ‘सामंतवाद‘ के बजाय सार्वभौमिक संस्थान और राष्ट्रों से मैत्री पर बल दिया था। संयुक्त राष्ट्र का प्रणेता भी अमेरिका था और मार्शल योजना से सारी दुनिया में राहत भी अमेरिका ने पहुंचाई थी। चीन को संयुक्त राष्ट्र में लाने वाला भी अमेरिका ही था। हां, इस सबमें अमेरिका के हित भी निहित थे। सारे विश्व में ऐसा करने से उसका व्यापार और उसकी छवि बढ़ती थी। पिछले प्रशासन तक क्लिंटन ने भी हर छोटे बड़े राष्ट्र का दौरा करके उनसे संबंध बनाए और बढ़ाए। जॉर्ज बुश पिछले 40 वर्षों में अमेरिका के सबसे कम विदेश यात्रा पर गए राष्ट्रपति हैं।

उपराष्ट्रपति डिक चेनी ने पिछले ढाई साल से कार्यकाल में सिर्फ एक विदेश यात्रा की है। यूरोप के पारंपरिक मित्र राष्ट्र और नाटो का भी सद्‌दाम विरोध अमेरिका ने न सिर्फ ताक पर रख दिया, वरन कई बार तो बुश प्रशासन के मंत्रियों ने दूसरे देशों को अपने ‘बेबाक‘ वक्तव्यों से गहरी ठेस पहुंचाई। मामला सिर्फ सद्‌दाम तक सीमित नहीं है, इराक में सद्‌दाम के बाद पुनर्गठन में संयुक्त राष्ट्र और यूरोप के देशों का भी भारी योगदान लगेगा। आतंकवाद और अल कायदा के खिलाफ जंग में अमेरिका के साथ कई देशों के खुफिया और सुरक्षातंत्र मिलकर काम करते हैं, तभी इतने आतंकवादी एशिया और यूरोप में पकड़े गए हैं। उत्तरी कोरिया की परमाणु गतिविधियों से अमेरिका जापान और चीन के सहयोग के बिना अकेला नहीं पार पा सकता, इसराइल-फिलिस्तीन समस्या का हल भी अमेरिका पश्चिम एशिया के राष्ट्रों के सहयोग के बिना नहीं निकाल सकता।

दुनिया के इतिहास में कई बार शासन और सभ्यताएं अपने चरमोत्कर्ष पर सबको साथ लेने के बजाय अपनी सत्ता के बल पर सबसे विलग हो गए थे। अमेरिका और उसके रहते सारे विश्व में नए राजनीतिक गठबंधन और विश्व तंत्र की उभरती रूपरेखा को अंजाम अमेरिका ही देगा। सिर्फ स्वार्थ और ‘तात्कालिक जरूरत‘ पर आधारित हर किसी से सिर्फ ‘लेन-देन‘ की दोस्ती से यह नहीं हो सकता, ना ही सिर्फ असीम सैन्य और आर्थिक शक्ति के बल पर। बुश प्रथम और अन्य विश्व विख्यात अमेरिकी राष्ट्रपतियों की ही तरह यह होगा सहमति, सहयोग और विश्व जनमंच पर राष्ट्रों के बहुमत समर्थन से, जो कि इसी प्रशासन ने अल कायदा और आतंकवाद से लड़ने के लिए भी हासिल किया था।

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