इराक और युद्ध के बीच सिर्फ चंद लम्हे

17 मार्च 2003

इराक और युद्ध के बीच सिर्फ चंद लम्हेराजनीति का दूसरा नाम ही है ‘आर्ट ऑफ द इम्पॉसिबल‘ जिसमें सब कुछ संभव है। अत्यंत जटिल मसलों का भी समय कोई हल निकाल देता है लेकिन जॉर्ज बुश और अमेरिकी नेतृत्व में खाड़ी क्षेत्र में तैयार 2 लाख 75 हजार सैनिकों के पास अब सद्‌दाम को देने के लिए और समय नहीं है। इन पंक्तियों को लिखने और आपके पढ़ने के घंटों के बीच भी इराक पर आक्रमण का शंखनाद हो सकता है। रविवार को पुर्तगाल के एक द्वीप पर हुई ‘एक घंटे‘ की अनूठी शीर्ष वार्ता और उसी दिन चेनी-पावेल के वक्तव्यों ने स्पष्ट कर दिया है कि अब इराक और उसका शासन ‘तुरंत‘ त्यागने के अलावा सद्‌दाम के लिए युद्ध का सामना अवश्यंभावी है। यह संदेश सिर्फ सद्दाम के लिए नहीं, बल्कि सुरक्षा परिषद के 15 सदस्य राष्ट्र और विश्व के सभी देशों को भी था कि सद्‌दाम-इराक के विषय में चर्चाओं और समीकरण के दौर अब ‘अंतिम चौराहे‘ पर हैं।

बीते कुछ दिन

अमेरिकी प्रशासन ने तो यह बार-बार कह दिया कि उन्हें सद्‌दाम पर सामरिक कार्रवाई करने के लिए सुरक्षा परिषद में दोबारा बहुमत की कोई आवश्यकता नहीं है, अमेरिका के लिए अनुमोदन 1441 ही काफी है। वह तो सिर्फ अपने घनिष्ठ सहयोगी और अंतरराष्ट्रीय राजनीति में दबे स्वरों में अब ‘बुश के पालतू‘ कहलाने वाले टोनी ब्लेयर को उनके देश इंग्लैंड में हो रहे भारी विरोध से जूझने के लिए सुरक्षा परिषद में नए अनुमोदन को पारित करवाने के भरसक प्रयास कर रहा था लेकिन 15 में से 9 का बहुमत भी उन्हें नजर नहीं आया। इसलिए पिछले सप्ताह तक दोबारा वोट पर अडिग बुश ने भी अपना विचार बदल लिया, क्योंकि वे भी सुरक्षा परिषद में परास्त अनुमोदन की अवहेलना करके और अधिक कूटनीतिक सख्ती नहीं चाहते। फ्रांस, जर्मनी तो इतनी जल्दी सैनिक कार्रवाई के विरोध में खुलकर थे, बुश के पिछले सालों के नए मित्र रशिया के पुतिन और पाकिस्तान के मुशर्रफ ने भी अमेरिका के साम और ‘दाम‘ के खुले आश्वासन के बावजूद सहमति व्यक्त नहीं की।

तुर्की के भरोसे इराक के उत्तरी भाग से जमीन और हवाई आक्रमण की सारी योजना तुर्की की संसद के विरोध से धरी रह गई। किए गए सर्वेक्षण के अनुसार अमेरिका की जनता अभी भी सद्‌दाम हुसैन को इराक से हटाने को सही मानती है, हालांकि अधिकांश की यह भी इच्छा है कि सैनिक कार्रवाई संयुक्त राष्ट्र के अनुमोदन से होना चाहिए और महीनों से मीडिया पर छाई इराक-लड़ाई की चर्चा और उससे उत्पन्न अनिश्चितता ने पहले से ही नरम अर्थव्यवस्था को पुनः मंदी के कगार पर ला खड़ा किया है। तेल की कीमत पिछले महीनों में दोगुनी हो गई है।

इराक से सद्‌दाम को निर्णायक रूप से हटाने के लिए अमेरिका के लगभग 2 लाख 25 हजार से अधिक सैनिक, सैकड़ों वायुयान, कई विमान वाहक युद्धपोत, खाड़ी क्षेत्र में जमा हैं

अब अमेरिका के जनमत का तो मानना है कि अगर लड़ाई होनी ही है, तो वह फिर परसों के बजाय कल ही हो जाए ताकि अनिश्चितता की दौड़ से तो आगे बढ़ सकें। पिछले दिनों अल कायदा के सरगना खालिद शेखमोहम्मद के पाकिस्तान में पकड़े जाने के बाद ओसामा बिन लादेन को जिंदा या मुर्दा पकड़ने के अमेरिकी प्रयासों में बहुत तेजी आ गई है क्योंकि अगर इन्हीं दिनों में किसी तरह भी बिन लादेन अगर पकड़ा गया तो आतंकवाद के खिलाफ बुश की जेहाद को सारी दुनिया का समर्थन मिल जाएगा और इराक के खिलाफ सैनिक कार्रवाई का विरोध एकदम ठंडा पड़ सकता है।

कैसा होगा यह इराक युद्ध?

अमेरिका ने अपनी सैन्य शक्ति का पूरा बल खाड़ी क्षेत्र में लगा दिया है। इराक से सद्‌दाम को निर्णायक रूप से हटाने के लिए अमेरिका के लगभग 2 लाख 25 हजार से अधिक सैनिक (इंग्लैंड के 40 हजार इसके अलावा हैं), सैकड़ों वायुयान, कई विमान वाहक युद्धपोत, खाड़ी क्षेत्र में जमा हैं। उस इलाके में सहयोगी राष्ट्र कम होने से कुवैत, कतर आदि में ही जमीनी सेना ने अपने डेरे जमा रखे हैं और अधिकांश उड़ानें अमेरिका के विमान वाहक युद्धपोत से ही होंगी। इस युद्ध की कमान होगी जनरल टॉमीफ्रेंक के हाथ, जिनका पूरा मुख्यालय फ्लोरिडा से उठकर कतर में स्थानांतरित हो गया है। राष्ट्रपति बुश के सिर्फ आदेश की देरी है, अमेरिका सेना ने पहले 48 घंटे में ही इराक पर इतनी भीषण हवाई गोलाबारी की योजना बनाई है कि उससे सद्‌दाम का पूरा प्रशासन और रक्षातंत्र नष्ट हो जाएगा। उसके तुरंत बाद जमीनी सेना और टैंक कुवैत के मार्ग से बगदाद की ओर कूच करेंगे। सामरिक कार्रवाई की मुख्य आधारशिला है कि सद्‌दाम और उनकी सेना पर इतने कम समय में इतना भारी आक्रमण कि इराक की सेना खुद ही हथियार डाल दे।

यह सही है कि सामरिक दृष्टि से अमेरिका के लिए यह लड़ाई मार्च-अप्रैल में ही लड़ना आसान है, लेकिन उसकी सेना इराक की भीषण गर्मी में भी लड़ने के लिए पूरी तरह लैस और प्रशिक्षित है। सारी योजना के बावजूद कई अहम पहलू सिर्फ वक्त ही बताएगा कि क्या सद्‌दाम 1991 की ही तरह इराक के तेल के कुओं को आग लगा देंगे, क्या वे किसी रासायनिक या जैविक हथियार का प्रयोग करेंगे (अमेरिका की सेना इसके लिए भी तैयार है और ऐसा करने से सद्‌दाम पर उनका शक सही सिद्ध हो जाएगा), क्या बगदाद और सद्‌दाम भी अफगानिस्तान की ही तरह आसानी से कुछ दिनों के हमले में काबू में आ जाएंगे और इस सबकी अमेरिका को जान और माल में क्या कीमत चुकानी होगी। (इस युद्ध में होने वाले संभावित खर्च के बारे में प्रशासन ने संसद को भी कोई ‘ऑफिशियलएस्टीमेट‘ नहीं पेश किया है) पिछले गल्फ ने सीएनएन को जन्म दिया था। इस बार तो मानो लड़ाई का ‘आंखों देखा हाल’ सारे विश्व को प्रचार तंत्र से मिलेगा।

अमेरिका के ही लगभग 500 से अधिक पत्रकार पूरे क्षेत्र में फैले हुए हैं, सैनिक कार्रवाई और उससे जुड़ी हर खबर को सारी दुनिया तक तुरंत पहुंचाने के लिए। सद्‌दाम जिंदा अमेरिका के हाथ आए या नहीं, बगदाद पर से सद्‌दाम का सालों से चल रहा शासन अब युद्ध शुरू होने के बाद ज्यादा दिन का नहीं होगा और वो भी अमेरिका चाहता है अपने सैनिकों की जान की कम से कम कीमत पर। यही नहीं, अमेरिका ने तो सद्‌दाम के बाद इराक में नए प्रशासन और इराक के पुनरुत्थान तक की रूपरेखा बना रखी है। युद्ध में ध्वस्त होने वाले सड़कों, पुलों, बिजली और जलसेवा के 900 मिलियन डॉलर के संभावित ‘टेंडर‘ के लिए अमेरिका की चुनिंदा कंपनियों से प्रशासन की चर्चा हो चुकी है।

आखिर बुश को सद्‌दाम से इतनी नफरत क्यों है?

कई अटकलें हैं इस बारे में। क्या बुश को लगता है कि उन्हें अपने पिता और भूतपूर्व राष्ट्रपति के अधूरे काम को पूरा करना है, क्या यह सिर्फ इराक के तेल पर कब्जा करने की लड़ाई है (इराक में सऊदी अरब के बाद विश्व में दूसरे नंबर के 100 बिलियन बैरल से अधिक के तेल भंडार हैं जो आज की खपत दर से अमेरिका के अगले 100 सालों के पूरे तेल आयात की पूर्ति कर सकते हैं) क्या इसी के चलते अमेरिका को तेल के कारण सामरिक रूप से महत्वपूर्ण कट्‌टरपंथी इस्लाम बहुल खाड़ी क्षेत्र में भी अपने ‘स्वामित्व का टापू‘ मिल जाएगा।

यह सभी आंशिक या पूर्ण रूप से सही हैं, लेकिन इससे भी प्रबल है जॉर्ज बुश का यह विश्वास की इराक के तानाशाह के रूप में सद्‌दाम हुसैन आतंकवाद को प्रत्यक्ष-परोक्ष बढ़ावा देते हैं, उनके पास ‘सामूहिक विनाश के हथियार‘ हैं जिनका वे कभी भी अमेरिका या उसके हितों के खिलाफ उपयोग कर सकते हैं और उसके पहले कि सद्‌दाम वार करें, अमेरिका और स्वतंत्र राष्ट्रों की सुरक्षा के लिए सद्दाम को इराक के शासन से हठाना उनका कर्तव्य ही नहीं नैतिक धर्म है। जॉर्ज बुश के ये विचार तो हमेशा थे। 11 सितंबर के बाद आतंकवाद के सर्वनाश हेतु यही उनके प्रशासन के ध्येय बन गए। ‘बुश एट वार‘ पुस्तक में पत्रकार बॉब वुडवर्ड ने साफ लिखा है कि व्हाइट हाउस के गलियारों में तो 12 सितंबर 2001 से ही आतंकवाद और अल कायदा के साथ-साथ सद्‌दाम का नाम भी जॉर्ज बुश की ‘हिट लिस्ट‘ में जुड़ गया था।

अमेरिका की अर्थव्यवस्था में भारी वित्तीय घाटे के बावजूद बुश सद्‌दाम को इराक से हटाने के लिए होने वाले विशाल खर्चे के लिए कटिबद्ध हैं। इसके बाद विश्व के इस्लामिक समाज में अमेरिका विरोधी भावना बढ़ जाएगी और उससे अमेरिका में आतंकवादी गतिविधियां बढ़ सकती हैं, बुश प्रशासन इससे पूरी तरह वाकिफ है। उनके कुछ सहयोगी चेनी-रम्सफेल्ड तो पिछले साल ही इराक पर आक्रमण को आमादा थे। यह तो विदेशमंत्री कोलिन पावेल ने संयुक्त राष्ट्र के समर्थन और उसके अनुमोदन पर पुनः ‘हथियार निरीक्षण‘ के मार्ग पर बहुत जोर डाला तभी अमेरिका ने वह रास्ता चुना लेकिन तब तक प्रशासन के ही अन्य वरिष्ठ सदस्य संयुक्त राष्ट्र के हथियार निरीक्षण की निरर्थकता पर कई बार बोल चुके थे।

इस लड़ाई में अमेरिका सारी दुनिया से अलग क्यों है?

इराक युद्ध तो शुरू होने के बाद अपनी कीमत वसूल करके अपने मुकाम तक जल्द ही पहुंच जाएगा, लेकिन इसी के पहले अमेरिका और उसके घनिष्ठ सहयोगी राष्ट्रों में भारी मतभेद, संयुक्त राष्ट्र, सुरक्षा परिषद और नाटो जैसे विश्व के जनमंच की अमेरिका द्वारा खुली अवहेलना और सद्‌दाम के कर्तव्यों से सबके वाकिफ होने के बावजूद सारी दुनिया अमेरिका के इस कदम का इतना गहरा राजनैतिक और जनविरोध क्यों? सिर्फ सालभर पहले अफगानिस्तान में हुई कार्रवाई में सारी दुनिया अमेरिका के साथ थी, वो आतंकवाद के खिलाफ सबकी सामूहिक जंग थी। फिर 12 महीनों में इतना क्या बदल गया। 1991 के खाड़ी युद्ध में युद्ध खर्च का सिर्फ 10 प्रतिशत भार अमेरिका ने वहां किया था, क्योंकि वह सद्‌दाम को कुवैत से खदेड़ने के लिए पूरे विश्व की लड़ाई थी। उसके पीछे तत्कालीन राष्ट्रपति बुश और विदेशमंत्री जेम्स बेकर की सूझबूझ थी।

वर्तमान प्रशासन की इस करनी पर तो जॉर्ज बुश प्रथम भी चुप नहीं रह सके कि अमेरिका को विश्व के राष्ट्रों से अपने संबंध सुधारने पड़ेंगे। अमेरिकी मीडिया के अनुसार वो कोलिन पावेल हैं तो अमेरिका फिर भी दूसरों की थोड़ी सुनता है, अन्यथा रक्षामंत्री रम्सफेल्ड ने तो फ्रांस, जर्मनी, सुरक्षा परिषद और यहां तक कि सार्वजनिक रूप से इराक युद्ध के लिए इंग्लैंड के समर्थन को भी ‘जरूरी नहीं‘ करार दे दिया।

यह सही है कि फ्रांस और रूस दोनों के इराक में आर्थिक स्वार्थ निहित हैं जो लड़ाई के बाद खटाई में पड़ जाएंगे और सद्‌दाम की तानाशाही और अत्याचार जग-जाहिर है। चूक रही है तो अमेरिका के सारी दुनिया को साथ में लेकर चलने के बजाय ‘नजर-अंदाज’ करने की शैली में। अमेरिका निर्विवाद रूप से वर्तमान विश्व का एकमात्र आर्थिक और सामरिक ‘सुपर पावर‘ है, अमेरिका का सालाना रक्षा व्यय सारी दुनिया के बाकी 191 देशों के रक्षा व्यय के जोड़ से भी अधिक है। अमेरिका का 10 ट्रिलियन (एक करोड़ खरब, पद्‌म) डॉलर की अर्थव्यवस्था 2,3 और 4 नंबर पर जापान, जर्मनी और इंग्लैंड के जोड़ से भी अधिक है, पूरी दुनिया में हो रहे शोध कार्य का 50 प्रतिशत कार्य सिर्फ अमेरिका में होता है। लेकिन फिर सारे विश्व में अमेरिका विरोधी ऐसी लहर क्यों?

न्यूज वीक‘ पत्रिका के संपादक फरीद जकारिया के अनुसार 1945 में भी अमेरिका विश्व में इतना ही शक्तिशाली था, लेकिन तब रूजवेल्ट और ट्रुमन ने अमेरिकी ‘सामंतवाद‘ के बजाय सार्वभौमिक संस्थान और राष्ट्रों से मैत्री पर बल दिया था। संयुक्त राष्ट्र का प्रणेता भी अमेरिका था और मार्शल योजना से सारी दुनिया में राहत भी अमेरिका ने पहुंचाई थी। चीन को संयुक्त राष्ट्र में लाने वाला भी अमेरिका ही था। हां, इस सबमें अमेरिका के हित भी निहित थे। सारे विश्व में ऐसा करने से उसका व्यापार और उसकी छवि बढ़ती थी। पिछले प्रशासन तक क्लिंटन ने भी हर छोटे बड़े राष्ट्र का दौरा करके उनसे संबंध बनाए और बढ़ाए। जॉर्ज बुश पिछले 40 वर्षों में अमेरिका के सबसे कम विदेश यात्रा पर गए राष्ट्रपति हैं।

उपराष्ट्रपति डिक चेनी ने पिछले ढाई साल से कार्यकाल में सिर्फ एक विदेश यात्रा की है। यूरोप के पारंपरिक मित्र राष्ट्र और नाटो का भी सद्‌दाम विरोध अमेरिका ने न सिर्फ ताक पर रख दिया, वरन कई बार तो बुश प्रशासन के मंत्रियों ने दूसरे देशों को अपने ‘बेबाक‘ वक्तव्यों से गहरी ठेस पहुंचाई। मामला सिर्फ सद्‌दाम तक सीमित नहीं है, इराक में सद्‌दाम के बाद पुनर्गठन में संयुक्त राष्ट्र और यूरोप के देशों का भी भारी योगदान लगेगा। आतंकवाद और अल कायदा के खिलाफ जंग में अमेरिका के साथ कई देशों के खुफिया और सुरक्षातंत्र मिलकर काम करते हैं, तभी इतने आतंकवादी एशिया और यूरोप में पकड़े गए हैं। उत्तरी कोरिया की परमाणु गतिविधियों से अमेरिका जापान और चीन के सहयोग के बिना अकेला नहीं पार पा सकता, इसराइल-फिलिस्तीन समस्या का हल भी अमेरिका पश्चिम एशिया के राष्ट्रों के सहयोग के बिना नहीं निकाल सकता।

दुनिया के इतिहास में कई बार शासन और सभ्यताएं अपने चरमोत्कर्ष पर सबको साथ लेने के बजाय अपनी सत्ता के बल पर सबसे विलग हो गए थे। अमेरिका और उसके रहते सारे विश्व में नए राजनीतिक गठबंधन और विश्व तंत्र की उभरती रूपरेखा को अंजाम अमेरिका ही देगा। सिर्फ स्वार्थ और ‘तात्कालिक जरूरत‘ पर आधारित हर किसी से सिर्फ ‘लेन-देन‘ की दोस्ती से यह नहीं हो सकता, ना ही सिर्फ असीम सैन्य और आर्थिक शक्ति के बल पर। बुश प्रथम और अन्य विश्व विख्यात अमेरिकी राष्ट्रपतियों की ही तरह यह होगा सहमति, सहयोग और विश्व जनमंच पर राष्ट्रों के बहुमत समर्थन से, जो कि इसी प्रशासन ने अल कायदा और आतंकवाद से लड़ने के लिए भी हासिल किया था।

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