जननी जन्मभूमिश्च

21 दिसम्बर 2002

जननी जन्मभूमिश्च क्या सोचता है हजारों मील दूर बैठा एक ‘इंदौरी‘ अपने शहर के लिए? या सोचता भी है क्या एक ‘इंदौरी‘ अपने पैतृक शहर के लिए? क्या एक ‘इंदौरी‘ सिर्फ इसलिए अधिक गौरवशाली हो जाता है क्योंकि वह शहर या देश से दूर चला गया है?

क्या वह अपने इंदौर की उन्नति के लिए कुछ करना चाहता है? क्या उसे अपने शहर से कुछ आशा है? निश्चित है कि महोत्सव के दौरान इन सभी विषयों पर गहरा विचार-मंथन और आदान-प्रदान होगा।

किसी भी मां के जीवन का सर्वाधिक गौरव उसकी संतान और उनके गौरव में निहित होता है। आज का दिन वात्सल्यमयी मां अहिल्या की नगरी इंदौर के गौरव का दिन है। देश-विदेश के कोने-कोने से ‘इंदौरी‘ अपनी जननी जन्मभूमि का गौरव बढ़ाने आज से ‘इंदौर गौरव महोत्सव‘ में शरीक होंगे। और मुझ जैसे कई हजारों और भी हैं, जो तन से तो आज इंदौर में उत्सव में शामिल होने मौजूद नहीं हैं, लेकिन जिनके मन के हर स्पंदन में इंदौर जुड़ा है।

अपने शहर को देखकर गर्व होता है। याद आता है शहर के रिश्तों का अपनापन, जहां व्यावसायिक लेन-देन से शुरू हुए संबंध भी गहरी मित्रता में बदल जाते हैं

क्या सोचता है हजारों मील दूर बैठा एक ‘इंदौरी‘ अपने शहर के लिए? या सोचता भी है क्या एक ‘इंदौरी’ अपने पैतृक शहर के लिए? क्या एक ‘इंदौरी‘ सिर्फ इसलिए अधिक गौरवशाली हो जाता है क्योंकि वह शहर या देश से दूर चला गया है? क्या वह अपने इंदौर की उन्नति के लिए कुछ करना चाहता है? क्या उसे अपने शहर से कुछ आशा है? निश्चित है कि महोत्सव के दौरान इन सभी विषयों पर गहरा विचार-मंथन और आदान-प्रदान होगा। मैं तो यहां चंद शब्दों में अपने विचार आज के पावन दिन आपके साथ बांटना चाहता हूं। इंदौर गौरव महोत्सव के ठीक बाद 9 जनवरी को नई दिल्ली में बहुत बड़े स्तर पर ‘भारतीय प्रवासी दिवस‘ का आयोजन किया जा रहा है। अब हर साल 9 जनवरी को प्रवासी भारतीय दिवस मनाया जाएगा। इसी दिन गांधीजी दक्षिण अफ्रीका से स्वदेश लौटे थे।

आज मुझे इंदौर की बहुत याद आ रही है। आज ही क्यों, ऐसा कौन-सा दिन है कि मुझे और मुझ जैसे हजारों को इंदौर की याद नहीं आती। सच तो यह है कि ‘यू केन टेक एन इंदौरी आउट ऑफ इंदौर, बट यू केन नेवर टेक आउट इंदौर फ्रॉम एन इंदौरी‘ (एक इंदौरी तो इंदौर के बाहर जा सकता है लेकिन इंदौर किसी भी इंदौरी के दिल से कभी बाहर नहीं जाता)। शायद हर शहर के प्रवासी शहर वाले को अपने शहर से इतना ही लगाव हो, कदाचित नहीं भी, लेकिन अपने इंदौर की मत पूछिए, आंख और मुंह दोनों में पानी आ जाता है।

इंदौर के प्रति लगाव

लेकिन चूंकि शहर और शहर वालों से इतना लगाव है और उसके अतीत का गौरव देखा है, तो उसके वर्तमान को देखकर बहुत दुःख होता है। कभी-कभी क्रोध भी आता है। हां, परिवर्तन प्रकृति का नियम है, लेकिन प्रगति और विकास की ओर, एक ऐसी व्यवस्था की ओर नहीं जहां व्यवस्था सिर्फ एक शब्द बनकर रह गई हो। मैं तो साल में कुछ दिनों के लिए इंदौर आता हूं लेकिन देखता क्या हूं? आधुनिक जीवन की मूलभूत जरूरतों में इतनी कटौती… सड़क, पानी, बिजली, रोजगार सभी में! यह सही है कि हर तरह के प्रशासन की अपनी मजबूरियाँ हैं जो गोया दूर से नजर नहीं आतीं, लेकिन इसी देश में जब इंदौर के आकार-प्रकार के बराबर शहरों से गुजरते हैं, तो अधिकांश में ऐसा क्यों नहीं लगता? कई बार तो उनकी प्रगति देखकर मन में मानो जलन-सी होती है कि अपना इंदौर ऐसा क्यों नहीं, जबकि वह इन सबसे दशकों पहले बहुत आगे था।

इंदौर का नाम लेते ही पोहे-जलेबी, कचोरी, प्रकाश-आकाश की सेंव से मुंह में पानी आ जाना हर इंदौरी को बहुत अच्छा लगता है, फिर वह चाहे कहीं भी हो और कितने ही सालों से इंदौर के बाहर हो। साथ ही याद आता है शहर के रिश्तों का अपनापन, जहां व्यावसायिक लेन-देन से शुरू हुए संबंध भी गहरी मित्रता में बदल जाते हैं। मन गद्‌गद्‌ हो जाता है जब छप्पन दुकान पर पुराना पान वाला, जेलरोड पर दर्जी और छावनी के आपके पैतृक डॉक्टर महीनों-बरसों बाद मिलने पर इतनी आत्मीयता से कुशलक्षेम पूछते हैं और पेट जवाब दे देता है तथा जाने के दिन आ जाते हैं, लेकिन भोजन के बुलावे और मनुहार फिर भी अधूरी ही रह जाती है। मैं इंदौर सिर्फ इसलिए नहीं आना चाहता क्योंकि वहाँ मेरे अपने रहते हैं बल्कि इसलिए कि मुझे इंदौर आकर बहुत खुशी होती है। अपने शहर को देखकर गर्व होता है।

जीवन की मूल ज़रूरतों पर एक नज़र

इंदौर के गौरव तो सदा से ही इसके जागरूक नागरिक रहे हैं। इनमें से कई ने अपने शहर के लिए निःस्वार्थ भाव से जीवनपर्यंत सेवा की है। धर्म-कर्म में तो इंदौर-मालवा की पुण्यभूमि का कोई सानी नहीं है। तभी तो चोइथराम अस्पताल से लेकर अहिल्या माता गौशाला, अभय प्रशाल से लेकर गुजराती कॉलेज और वैष्णव पॉलिटेकनिक से लेकर मोक्षधाम तक हजारों संस्थाएं इस शहर को उसके नागरिकों की ही देन हैं। दुःख तो यह है कि शहर में सामान्य व्यवसाय और उद्योग संकट में हैं। दूर से ऐसा नजर आता है कि इंदौर में सिर्फ दवाई, पढ़ाई और खाने-पीने से जुड़े उद्योग ही अधिक फल-फूल रहे हैं, क्योंकि ये तीनों तो जीवन की मूल जरूरतें हैं।

यू केन टेक एन इंदौरी आउट ऑफ इंदौर, बट यू केन नेवर टेक आउट इंदौर फ्रॉम एन इंदौरी

आज से बीस साल पहले शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा के संस्थान तो शहर में सिर्फ परमार्थ और जनसेवा के लिए होते थे, वहीं टीचिंग इंस्टीट्‌यूट, कॉलेज और नर्सिंग होम, हॉस्पिटल ही आज इंदौर शहर के बड़े व्यवसाय बन गए हैं। ये दोनों बहुत ही अच्छे व्यवसाय हैं और आधुनिक समाज में इनका सुचारु प्रबंधक सिर्फ पारमार्थिक रूप से कम ही हो सकता है। इंदौर के शिक्षा संस्थानों का नाम बहुत है लेकिन यहां से पढ़कर अधिकांश लोग शहर से बाहर ही चले जाते हैं। किसी भी समाज या शहर के अतीत के गौरव में तभी आभा है, जब उसका भविष्य उज्ज्वल है अन्यथा अतीत तो खंडहर बनाने की कथाओं के इतिहास से भरा हुआ है। होलकर टीम और राज्य, सर सेठ हुकुमचंदजी, राजबाड़ा, लता मंगेशकर, एम.एफ. हुसैन सभी इंदौर के इतिहास के स्वर्ण अक्षर हैं। लेकिन क्या कहीं आने वाले कल का ‘राजबाड़ा’ और हम सब में पलक मुछाल जैसे समर्पित नागरिक पनप रहे हैं या नहीं? जिस सॉफ्टवेयर और ‘आई.टी. एनेबल्ड सर्विसेस’ उद्योग से पूरे भारत के विदेशी मुद्रा कोष की काया ही पलट गई, भारत 2010 में ‘बैक ऑफिस ऑफ द वर्ल्ड‘ बनने के मार्ग पर अग्रसर है, उनमें से कितनी कंपनियों को इंदौर का नाम भी मालूम है? इंदौर में इन उद्योगों से जुड़े कितने ऐसे सफल संस्थान हैं, जहां सौ से अधिक लोग काम करते हैं और जो कंपनियां अपना काम इंदौर में बढ़ाना चाहती हैं?

क्रियान्वयन अगर समयबद्ध होगा तो शहर की विकास योजनाओं में अप्रवासी इंदौरी अवश्य तन-मन-धन से जुड़ जाएंगे। तार तो जुड़े हुए हैं ही, जरूरत है उनमें विकास-ऊर्जा के स्पंदन और प्रवाह की। इंदौर गौरव महोत्सव सही मायने में इंदौर के कल, आज और कल के गौरव का स्रोत बन जाए, मन में यही आशा और विश्वास है।

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