जीवन का चरमोत्कर्ष : मेरी पहली ‘सोलो’ उड़ान
कुछ वर्षों पूर्व एक पत्रकार ने जहांगीर रतनजी दादाभाई (जे.आर.डी.) से पूछ था- आपके जीवन के सबसे अनमोल क्षण कौन-से हैं? जे.आर.डी. की आंखों में चमक आ गई और उन्होंने तुरंत जवाब दिया, ‘मेरी पहली सोलो (एकल) उड़ान से ज्यादा खुशी और संतुष्टि मुझे कभी नहीं हुई।‘ जेआरडी टाटा जैसे व्यापक और बहुआयामी जीवन व्यतीत करने वाले बिरले ही होते हैं,परंतु विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े रहने के बावजूद वह क्षेत्र एक या दो ही होते हैं, जिनमें संलग्न होकर वह व्यक्ति ‘आत्मिक शांति और तृप्ति‘ की अनुभूति प्राप्त करता है। जेआरडी भी इससे विलग नहीं हैं। जो आनंद उन्हें स्वच्छंद हवा में उड़ान भरने अथवा दूधिया, बर्फीली पहाड़ियों में ‘स्कीइंग’ करने में आता है, वह अन्य किसी गतिविधि में नहीं।
वायुयान से अपने पहले परिचय के बारे में याद करते हुए जेआरडी कहते हैं, ‘बचपन में, जब मेरी उम्र 7-8 वर्षों की रही होगी, तब फ्रांस में प्रथम विश्व युद्ध के पहले मेरा वायुयानों से सरोकार हुआ था।’ वायुयान और जेआरडी के आपसी रिश्तों को अगर ‘पहली नजर में प्यार’ कहा जाए तो कदापि अतिशयोक्ति नहीं होगी। हां, सामान्य तौर पर घटने के बजाय समय के साथ-साथ यह ‘प्यार‘ बढ़कर ‘दीवानगी‘ की हद तक पहुंच गया था। जेआरडी के पिता रतनजी दादाभाई टाटा का फ्रांस में नार्मेन्डी के पास इंग्लिश चैनल के तट पर हार्डिलोट कस्बे में ‘लॉ-मस्कोट‘ नामक एक छोटा-सा ग्रीष्मकालीन निवास था। इत्तिफाक से, इंग्लिश चैनल को वायुयान से पार करने वाले सबसे पहले व्यक्ति लुई ब्लेरियट ने भी छुटि्टयां बिताने के लिए अपना एक घर वहां बनाया था। पड़ोसी होने की वजह से दोनों परिवारों के सदस्यों, खासकर बच्चों में अच्छी दोस्ती हो गई थी।
कभी-कभी ब्लेरियट के वायुयान वहीं समुद्र तट पर उतरते थे। उन्हें उड़ाने वाला ‘पायलट’ ब्लेरियट तो नहीं, बल्कि अडोल्फ पीगोड था, जिसने वायुयान से जांबाज कलाबाजियां प्रदर्शित कर सभी को हतप्रभ कर दिया था। इसी जांबाज उड़ाकू के करतबों को नियमित तौर पर देखते हुए बालक जहांगीर के मन में भी ‘प्लेन‘ में घूमने की इच्छा प्रबल होती गई। प्रथम विश्व युद्ध के बाद फ्रांस में कई ‘पायलट‘ अपने वायुयानों में नागरिकों को बैठाकर हवाई यात्रा का आनंद (जॉय-राइड) दिया करते थे। ऐसी ही एक हवाई ‘जॉय राइड‘ के लिए बालक जहांगीर ने एक बार अपने पिता से जिद पकड़ ली। बालहठ के आगे पिता आर.डी. टाटा को न चाहते हुए भी हामी भरनी पड़ी। ‘उस दिन मैं पहली बार वायुयान में बैठकर आसमान में उड़ा था। मुझे पूरा विश्वास है कि जब तक हमारा प्लेन सकुशल उतर नहीं गया, मेरे पिताजी ने सिर्फ भगवान को ही याद किया होगा। उस वक्त मैं सिर्फ 15 वर्ष का था और मेरा विचार पक्का हो चुका था- मैं पायलट (विमान चालक) बनना चाहता था।’
जिस वक्त जे.आर.डी. फ्रांस में अपनी प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त कर रहे थे, उसी समय भारत में एक दूरदर्शी व्यवसायी और समाजसेवी, सर विक्टर सेसून के प्रयासों से बंबई फ्लाइंग क्लब की शुरुआत भी हो चुकी थी। मछुआरों की बस्ती जुहू के निकट अरब महासागर के तट पर हवाई पट्टी तैयार की गई। ब्रिटिश जलसेना से जुड़े रहे पायलट ई.डी. कमिंग्स को बंबई फ्लाइंग क्लब में प्रशिक्षक नियुक्त किया गया। जिस समय जे.आर.डी. फ्रांस से भारत आए, तब तक कमिंग्स के प्रशिक्षण में कुछ इच्छुकों का विमान चालन प्रशिक्षण प्रारंभ हो चुका था।
22 जनवरी 1929 को 25 वर्षीय युवक जे.आर.डी. ने बंबई फ्लाइंग क्लब में अपनी पहली ‘पायलट लॉग बुक‘ (चालक द्वारा रखा जाने वाला उड़ान के समय, स्थान, तारीख और विशेष घटनाओं का लेखा-जोखा) प्राप्त की और उसी दिन ‘वी.टी.-ए.ए.ई.’ नामांकन वाले ‘डी-हैवीलैंड मोथ’ विमान में ई.डी. कमिंग्स ने जेआरडी को 20-30 मिनट की उड़ान के दौरान पहला पाठ सिखाया। अपनी पहली प्रशिक्षण उड़ान के बाद सिर्फ एक ही पखवाड़ा बीतते वह स्वर्णिम दिन आ गया, जो जे.आर.डी. के सिर्फ ‘ऐविएशन‘ पहलू ही नहीं, वरन् 88 बसंत के पूरे जीवन का चरमोत्कर्ष था। महज 3 घंटे 45 मिनट की युगल प्रशिक्षण उड़ानों के बाद अमेरिकन प्रशिक्षक ए.ई. एल्टन और कमिंग्स ने जे.आरडी. को अपनी पहली ‘सोलो’ (एकल) उड़ान की इजाजत दे दी।
3 फरवरी 1929, पूर्वाह्न, जुहू हवाई पट्टी के पूर्वी ‘टू-सेवन‘ छोर से ‘डी.एच. मोथ’ विमान पश्चिम की ओर मुड़कर उड़ान भरने के लिए तैयार खड़ा था। विमान में सवार एकमात्र युवक, जो कि उसका चालक भी था, ने मानसिक तौर पर अपने सभी विमान चालन के पाठों को याद किया, मंद गति से विमान को ‘रन-वे’ पर आगे बढ़ाते हुए ‘कंट्रोल-स्टिक‘ पर संचालन बनाए रखते हुए जमीन के स्पर्श से विलग होते हुए विमान को नभ-पथ पर अग्रसर कर दिया।
10 मिनट की पहली एकल उड़ान के बाद जब विमान चालक ने अपने प्रशिक्षक की ओर देखा तो उनकी आंखों से उसे संतोष दिखाई पड़ा। जेआरडी की उस 10 मिनट की संक्षिप्त ‘सोलो‘ उड़ान के दूरगामी महत्व का सबसे उपयुक्त वर्णन शायद चंद्र-विजयी नील आर्मस्ट्रांग के उस ध्रुव-वाक्य से मिला-जुला हो सकता है, ‘एक इंसान के लिए एक छोटी-सी उड़ान थी, मगर इंसानियत के लिए वह एक दूरगामी हवाई सफर था।’ अगले सात दिनों तक जेआरडी ने एकल उड़ानें भरकर अपना अनुभव व विश्वास बढ़ाया और 10 फरवरी 1929 को 45 मिनट की ‘सोलो’ उड़ान के पश्चात विमान चालक (पायलट) का लाइसेंस प्राप्त करने की पात्रता अर्जित कर ली थी।
जे.आरडी. के ही शब्दों में ‘उसी दिन मुझे एक लिफाफा प्राप्त हुआ, जिसमें कपड़े के पृष्ठ वाला एक नीला कार्ड था, जिसमें स्वर्णाक्षरों में फेडरेशन ऐरोनॉटिक इंटरनेशनल ने ‘दे एरो क्लब ऑफ इंडिया एंड बर्मा‘ की ओर से मुझे ‘ऐविएटर सर्टिफिकेट‘ (पायलट लाइसेंस) नं. 1 प्रदान किया। मुझे आज तक किसी दस्तावेज ने इतनी खुशी नहीं दी है। खुशी का लुत्फ इस बात से और बढ़ गया था कि मैं भारत में पायलट की योग्यता प्राप्त करके लाइसेंस प्राप्त करने वाला पहला व्यक्ति था। कुछ वर्षों बाद मेरी बड़ी बहन, सिला, भारत में पायलट लाइसेंस प्राप्त करने वाली पहली महिला बनी और छोटी बहन, रोडाबेह, यह सम्मान प्राप्त करने वाली दूसरी महिला थी। हालांकि हम सबमें अच्छा विमान चालक मेरा छोटा भाई जमशेद (जिमी) था, जिसकी सिर्फ 21 वर्ष की अल्पायु में ही एक वायुयान दुर्घटना में असामयिक मृत्यु हो गई।’ 19 नवंबर 1929 को लंदन के ‘टाइम्स‘ अखबार में एक समाचार प्रकाशित हुआ। महामहिम आगा खान ने रॉयल एरो क्लब, लंदन के तत्वावधान में 500 पौंड का पुरस्कार घोषित किया है, जो कि ब्रिटेन से भारत अथवा भारत से ब्रिटेन की यात्रा को उड़ान मार्ग से ‘सोलो‘ उड़ान में सबसे कम समय में पूरा करने वाले विमान चालक को दिया जाएगा। पूरी दूरी उड़ान प्रारंभ होने के छह सप्ताह के अंदर तय हो जानी चाहिए।’
इस पुरस्कार को जीतने के लिए तीन प्रमुख दावेदारों ने प्रयास किए। सबसे पहले इंग्लैंड में पढ़ रहे एक सिख छात्र मनमोहनसिंह ने अपने ‘मिस इंडिया‘ नामक विमान में इंग्लैंड से भारत की यह वायुयात्रा 11 जनवरी 1930 को प्रारंभ की। मनमोहनसिंह में उत्साह तो भरपूर था, परंतु उनका विमान बार-बार मार्ग से भटक जाता था और उन्हें कई बार अजीबोगरीब स्थानों पर त्वरित ‘लैंडिंग’ करनी पड़ी। अंततः मनमोहनसिंह 10 मई को कराची (विभाजन के पहले भारत में) पहुँचे, परंतु छह सप्ताह से अधिक समय लेने के कारण उन्हें पुरस्कार के लिए दावेदार नहीं माना गया।
दूसरा एकल प्रयास कराची एरो क्लब के सदस्य 17 वर्षीय युवक एस्पी मर्विन इरानी ‘इंजीनियर‘ का था, जो 25 अप्रैल को क्रोयडन से उड़कर 11 मई को कराची पहुँचे। तीसरा प्रयास जेआरडी ने किया, जिन्होंने ड्रीग रोड, कराची से 3 मई 1930 को प्रातः 6.15 पर उड़ान भरकर आगा खाँ पुरस्कार हेतु अपनी कोशिश की शुरुआत की। इसके बाद जेआरडी की ‘लॉग बुक‘ में पश्चिम एशिया के वीरान विशाल रेगिस्तानी शहर, उत्तरी अफ्रीका, पश्चिम योरप होते हुए इंग्लैंड तक का सफर 72 घंटे 55 मिनट में पूरा करके 12 मई 1930 के मध्याह्न कोयडन, लंदन पहुंचकर तय किया। कुछ घंटों के समय अंतराल के आधार पर पुरस्कार एस्पी इंजीनियर को प्रदान किया गया। इसी आगा खां प्रतियोगिता के दौरान जेआरडी ने अपनी खिलाड़ी भावना का अप्रतिम परिचय दिया। कराची से लंदन के मार्ग में जेआरडी ने जब काहिरा (मिस्र) में अपना ‘कम्पॉस’ (दिशा सूचक यंत्र) ठीक करने हेतु पड़ाव किया, तो वहीं उनकी मुलाकात उनके प्रतिद्वंद्वी एस्पी इंजीनियर से हुई। बातचीत के दौरान एस्पी ने बताया कि स्पार्क प्लग में खराबी हो जाने के कारण उन्हें काहिरा में रुकना पड़ा। चूंकि उनके पास अतिरिक्त प्लग नहीं था, इसलिए उन्हें इंतजार करना पड़ेगा। जेआरडी ने तुरंत एस्पी को अपने 8 अतिरिक्त स्पार्क प्लग सेट में से 4 एस्पी को दे दिए। यह अटकल लगाना अनुचित नहीं होगा कि अगर एस्पी को जेआरडी स्पार्क प्लग नहीं देते, तो जेआरडी की पराजय के निर्णायक चंद घंटे शायद जीत में तब्दील हो जाते। महज आगा खां पुरस्कार के 500 पौंड से तो बहुत फर्क नहीं पड़ता, परंतु उस पुरस्कार के फलस्वरूप एस्पी इंजीनियर को भारतीय वायुसेना में प्रवेश मिल गया। उस समय तो वायुसेना अपने शैशवकाल में थी, परंतु यही एस्पी बाद में भारतीय वायुसेना के एअर चीफ मार्शल के पद तक पहुंच गए।
इसी आगा खां उड़ान के बाद जेआरडी जब वापस कराची लौटे, तो विमान से उतरते ही स्काउट की टुकड़ी ने बैंड-बाजे के साथ जेआरडी का स्वागत किया और 17 वर्षीय एस्पी इंजीनियर ने उनकी विशाल सहृदयता को सराहते हुए उन्हें एक चांदी का सिक्का भेंट किया, जिस पर अंकित था- ‘टू जेआरडी टाटा-फॉर स्पोर्ट्समैनशिप‘ (जेआरडी को खिलाड़ी भावना के लिए)।
1931 में ब्रिटेन की आर.ए.एफ. (रॉयल एअर फोर्स) के एक सेवानिवृत्त अफसर नेविल विन्टसेन्ट अपने एक सहयोगी के साथ भारतभर में विचरण कर लोगों को विमान यात्रा का अनुभव करवा रहे थे। उन्हीं दिनों इंपीरियल एयरवेज ने लंदन से कराची तक हवाई डाक लेकर आने की व्यवस्था प्रारंभ की थी। विन्टसेन्ट को यह विचार आया कि क्यों न निजी प्रयासों से कराची से आर्ग बंबई-मद्रास को भी इस हवाई डाक सेवा से जोड़ा जाए। इस हेतु उन्होंने बंबई के एक नामी व्यवसायी से बात की, परंतु उसने उनकी योजना में ज्यादा रुचि नहीं दिखाई। एक दिन नेविल विन्टसेन्ट ने इस योजना की चर्चा जे.आर.डी. से की और वे तुरंत तैयार हो गए।
डाक सेवा की रूपरेखा इस प्रकार तैयार हुई थी- प्लेन कराची से डाक लेकर अहमदाबाद होते हुए बंबई आएगा, वहां से बल्लोरी होता हुआ दूसरा प्लेन मद्रास तक जाएगा। चूंकि तब तक जे.आर.डी. टाटा घराने के व्यापार से जुड़ चुके थे, इसलिए इस योजना पर टाटा प्रमुखों की हामी जरूरी थी। पहले यह स्कीम जे.आर.डी. ने उन्हें धंधे के गुर सिखाने वाले अंग्रेज जॉन पेटरसन को दिखाई, जिन्होंने तुरंत स्वीकृति दे दी। उसके बाद यह टाटा सन्स के तत्कालीन अध्यक्ष सर दोराबजी टाटा के सामने पेश की गई। उन दिनों दोराबजी का व्यक्तिगत व टाटा घराने का व्यावसायिक, दोनों ही की नब्ज कुछ ढीली चल रही थी, इसलिए एक बार तो दोराबजी ने इस योजना में टाटा समूह के भाग लेने से इंकार कर दिया। परंतु जब उन्हें जॉन पेटरसन ने पुनः समझाया तो फिर वे मान गए। परंतु सबसे टेढ़ी खीर तो सरकार को इस योजना के लिए राजी करना था।
जे.आर.डी. और नेविल ने कई बार सरकार को अलग-अलग प्रस्ताव पेश किए, परंतु किसी को भी स्वीकृति नहीं मिली। जे.आर.डी.-नेविल सरकार से कुछ वित्तीय गारंटी की मांग कर रहे थे, और सरकार ऐसा कोई वायदा करने में झिझक रही थी। अंततः इन दोनों ने प्रस्ताव को एकदम नए रूप में पेश करते हुए सरकार से एक दस वर्षीय समझौता तय किया, जिसके अंतर्गत वित्तीय गारंटी का तो प्रावधान नहीं था, परंतु हवाई डाक लाने-ले जाने के लिए भुगतान की दर, डाक के वजन और उसको ले जाने की दूरी के आधार पर तय की गई थी। मुख्य बात तो यह थी कि यह भुगतान डाक सरचार्ज में से ही दिया जाना था, अतः सरकार को इस प्रक्रिया में एक पैसे का भी अतिरिक्त खर्च वहन नहीं करना था।
24 अप्रैल 1932 को इस कान्ट्रेक्ट पर हस्ताक्षर हुए और टाटा एअर लाइंस का जन्म हो गया। टाटा एअर लाइंस के प्रमुख पायलट और प्रबंधक थे नेविल विन्टसेन्ट और जे.आर.डी. के अलावा तीसरे पायलट के रूप में नियुक्त किया गया होमी भरूचा को। 15 अक्टूबर 1932 के ऐतिहासिक दिन 28 वर्षीय जे.आर.डी. अपनी परंपरागत सफेद पतलून और आधे बांह की सफेद कमीज पहने कराची की ड्रिग रोड हवाई पट्टी से अपने पस मोथ यान में ठीक सुबह ६ बजकर 35 मिनट पर अहमदाबाद होते हुए बंबई के लिए प्रस्थान कर गए। हवाई पट्टी पर उन्हें विदाई देने कराची नगर पालिका के प्रमुख, कराची के पोस्ट मास्टर सहित कुछ और लोग भी थे। प्लेन में जे.आर.डी. के अलावा थे 63 पौंड वजनी डाक के थेले- 55 पौंड वजनी बंबई के लिए और शेष अहमदाबाद।
‘जब मैं ‘पथ मोथ‘ में 100 मील प्रति घंटे की रफ्तार से अपने गंतव्य की ओर बढ़ रहा था, उस वक्त मैं हमारी योजना की सफलता और उससे जुड़े सभी लोगों की मंगल कामना के लिए मन ही मन में प्रार्थना कर रहा था। तब हमारा एक छोटा-सा समूह था। अपने सुख-दुःख, सफलता और कठिनाइयों को एक-दूसरे से बांटते हुए ही धीरे-धीरे हमने उस संस्था की नींव डाली थी जो बढ़ते-बढ़ते एक दिन एयर इंडिया बन गई।’
अहमदाबाद तक की दूरी विमान ने 4 घंटे 15 मिनट में तय की। वहां 4 गैलन की साधारण टंकी से प्लेन में बर्मा शैल कंपनी का मोटरकार में उपयोग आने वाला पेट्रोल डाला गया। पेट्रोल हवाई जहाज तक एक बैलगाड़ी में रखकर लाया गया था। यही था भारत के भविष्य और अतीत का एक अनूठा मिलन। अहमदाबाद से पुनः उड़ान भरके विमान ठीक दोपहर एक बजकर 45 मिनट पर बंबई के जुहू हवाई अड्डे पर लैंड किया। टाटा एयर लाइंस की पहली हवाई डाक सेवा उड़ान अपने निर्धारित समय से दस मिनट पहले ही गंतव्य पर पहुंच गई थी। बंबई व्यवसाय जगत की प्रमुख हस्तियों के अलावा वहां जे.आर.डी. के सकुशल आगमन का उनकी पत्नी थेली और मित्र भागीदार नेविल भी आतुरता से इंतजार कर रहे थे। पूर्व नियोजित कार्यक्रम के अनुसार नेविल दूसरे ‘पस मोथ’ विमान के साथ तैयार थे, और जे.आर.डी. के उतरने के कुछ ही समय में वे डाक लेकर आगे बेलारी होते हुए मद्रास के लिए प्रस्थान कर गए।
उन उत्साह और उमंग से ओतप्रोत दिनों की याद करते हुए जे.आर.डी. कहते हैं, ‘वो भी क्या रोमांचक दिन थे। हमारे पास न तो जमीन पर न ही आसमान में कोई वायरलेस व्यवस्था थी जिससे कि विमान का धरती से संपर्क बना रह सके। विमानों में न तो ब्रेक थे, और न कोई विकसित दिशा-सूचक यंत्र। यहां तक कि बंबई में हवाई अड्डे कहलाने लायक भी जगह नहीं थी। एक बड़ी-सी झोपड़ी ही हमारा ‘हैंगर‘ (वायुयान का गैरेज) था। समुद्र तट पर ही हमारी हवाई पट्टी थी। मानसून में जब समुद्र में पानी उफान पर रहता था, हमारी वह हवाई पट्टी समुद्र तल में जलमग्न हो जाती थी। तब हमारा पूरा लवाजमा तीन पायलट, दो विमान, तीन मैकेनिक पूना कूच करते थे जहां यरवदा जेल के समीप एक खेत से उड़ान भरते थे।’
प्रकृति की तमाम विपदाओं और अविकसित तकनीक और विज्ञान की विवशताओं के बावजूद एक वर्ष के अंतराल में टाटा एयर लाइंस के विमानों ने 1,60,000 हवाई मीलों का सफर तय किया। समय की पाबंदी पर अत्यधिक जोर, जे.आर.डी. के संपूर्ण उड्डयन जीवन का एक विशिष्ट पहलू रहा है। एक बार भाषण देते हुए उन्होंने विनोदप्रिय लहजे में कहा था, ‘पैसेंजरस मे बी डीलेड बट मस्ट नेवर बी लोस्ट, मेल मे बी लोस्ट बट मस्ट नेवर बी डीलेड‘ (यानी उड़ान देर से पहुंच सकती है, परंतु उसकी सुरक्षा प्राथमिक है। लेकिन डाक उड़ान के लिए सुरक्षा से भी अधिक महत्वपूर्ण उसकी समय की पाबंदी है)। समय की पाबंदी पर अपने अत्यधिक महत्व को समझाते हुए कुछ दिनों पहले जे.आर.डी. ने कहा था- ‘अगर अन्य साधनों से अधिक पैसा खर्च करके भी यात्री समय पर अपने गंतव्य पर नहीं पहुंच सकते तो फिर वायुसेवा का क्या औचित्य रह जाता है? एयर इंडिया के अध्यक्ष पद पर अपने कार्यकाल में इस बात पर मैं बहुत जोर देता था कि कोई भी विमान, चाहे वह कितनी भी दूर से क्यों न आ रहा हो, अगर अपने निर्धारित समय से 15 मिनट भी देरी से पहुंचता था तो इस बात की जानकारी मुझे अवश्य मिलना चाहिए।’
पर अब तो भारत में नागरिक उड्डयन की स्थिति बहुत निराशाजनक है। आजकल तो भारत में कई बार विमान गंतव्य पहुंचने के उनके निर्धारित समय तक तो ‘टेक-ऑफ’ ही नहीं करते हैं। जब उड़ान ही नहीं भरी, तो फिर पहुंचने के समय का क्या ठिकाना?’ इतिहास साक्षी है कि जे.आर.डी. के कार्यकाल में एयर इंडिया विमानों की समय पाबंदी तो जैसे उनकी पहचान बन गई थी। 1939 के उत्तरार्ध में द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ जाने से सामान्य नागरिक उड्डयन सेवाओं पर गहरा प्रभाव पड़ा था। टाटा एयर लाइंस के विमान नागरिक विमानन के बजाय सरकार की सेवाओं में लग गए थे।
उन्हीं दिनों जे.आर.डी. और नेविल के उत्साही दिमाग में एक विचार कौंधा। धातु के ढांचे वाले वायुयान के निर्माण में बहुत अनुभव की आवश्यकता है, किंतु काष्ठ ढांचे और दो इंजन वाले शक्तिशाली बमवर्षक विमान ‘डि-हैवीलैंड मसकीटो’ का निर्माण तो भारत में भी किया जा सकता था। मार्च 1942 में टाटा एयरक्राफ्ट लिमिटेड नामक नई कंपनी बनाई गई, जिसे अंगरेज सरकार ने भारत ही में ‘मसकीटो’ बनाने की अनुमति दे दी। विमानों के निर्माण के लिए पूना में आगा खां महल के निकट जमीन लेकर विमान बनाने का विशाल कारखाना खड़ा किया गया। जिस समय कार्य तेज गति से आगे बढ़ रहा था, उन्हीं दिनों ब्रिटिश सरकार ने अप्रत्याशित तौर पर योजना में आमूल परिवर्तन के निर्देश दे दिए। उन्होंने उस एयर क्राफ्ट के कारखाने में बमवर्षक ‘मसकीटो’ के बजाय ‘ग्लाइडर‘ बनाने का निर्देश दिया। चूंकि टाटा एयरक्राफ्ट में जमीन, संपत्ति, कारखाना आदि पर काफी खर्च हो चुका था, इसलिए भारी मन और अनिच्छा से उन्होंने ‘ग्लाइडर’ योजना मंजूर कर ली।
‘मुझे पूरा यकीन है कि अंगरेजों को डर था कि हम उनके मुकाबले में बढ़िया विमान न बनाने लग जाएं, इसीलिए हमारी उस महत्वाकांक्षी योजना को उन्होंने शुरू होने के पहले ही कुचल दिया। अगर हम ‘मसकीटो’ बनाने से शुरुआत करते तो अवश्य ही थोड़े समय बाद अन्य विमान भी भारत ही में बनना शुरू हो जाते, तब अंगरेजों के कारखानों का क्या होता?’ इसी ‘मसकीटो’ और ‘ग्लाइडर‘ के विवाद को सुलझाने के लिए नेविल अंगरेजों से बात करने इंग्लैंड गए थे। वहीं से लौटते समय उनके विमान पर दुश्मनों द्वारा हमला किया गया, और उनकी मृत्यु हो गई। नेविल की मृत्यु से जे.आर.डी. को भारी आघात पहुंचा। न सिर्फ विमान और उड़ानों के जरिये, बल्कि व्यक्तिगत तौर पर भी दोनों बहुत करीब आ गए थे। नेविल की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने ‘ग्लाइडर‘ बनाने वाली योजना पर भी प्रश्न चिह्न लगा दिया, क्योंकि ‘ग्लाइडर‘ को कारखाने से युद्धक्षेत्र तक ‘टो‘ करके ले जाने के लिए विमान उपलब्ध नहीं थे।
यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अगर 1942 से ही भारत में विमान निर्माण का कार्य प्रारंभ हो जाता तो आज इस अत्यंत परिष्कृत और सीमित क्षेत्र में भी भारत का सम्मानजनक स्थान होता। जे.आर.डी. ने वर्षों बाद हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड को अवश्य निर्माण में कुछ सुझाव दिए, परंतु 1942 में ही भारत में विमान बनाने का जे.आर.डी. का महत्वाकांक्षी स्वप्न साकार न हो सका, सपना ही रह गया। आज जे.आर.डी. टाटा घराने की औद्योगिक सफलताओं में तो अपना योगदान ‘तुच्छ‘ ही मानते हैं, परंतु विनम्रतापूर्वक स्वीकार करते हैं कि भारत में नागरिक उड्डयन के विकास में उनका योगदान अवश्य उल्लेखनीय है।
वैसे विमानों और उड़ानों से तो जे.आर.डी. का जैसे चोली-दामन का रिश्ता हो गया था। तभी तो 1982 में 78 वर्ष की आयु में भी कराची-बंबई डाक सेवा उड़ान की स्वर्णिम जयंती उड़ान के पूर्व शुभचिंतकों द्वारा ‘सोलो‘ उड़ान के लिए आनाकानी करने पर जे.आर.डी. ने कहा था ‘मैंने 1932 और 1962 दोनों ही बार यह उड़ान ‘सोलो’ ही की थी। इस बार भी उस ऐतिहासिक घटना की पुनरावृत्ति का आनंद तभी आएगा अगर मैं वह उड़ान ‘सोलो’ ही पूरी करूं। अन्यथा तो मैं महज एक यात्री बनकर भी उस मार्ग पर विमान से सफर कर सकता हूं, परंतु उसमें कोई मजा नहीं रहगा। ऐसी जयंती मनाने से तो इस बात को भूल जाना ही बेहतर है।’ अपनी इस जीवन पर्यंत ललक को समझाते हुए खुद जे.आर.डी. ने कहा है ‘मैं सदैव जोखिम भरी जिंदगी जीने के लिए तत्पर रहा हूं। शायद इस उम्र में भी मेरी स्फूर्ति और यौवन का यही रहस्य है। मनुष्य में सदैव जीवन के हर पहलू में जोखिम उठाने की क्षमता होनी चाहिए, व्यवसाय में, खेलों में, वैवाहिक जीवन में। यही जोखिम तो जीवन को नीरस होने से बचाता है।‘