लड़ भैया, जीते लगान!

22 मार्च 2002

5 साल पहले नामुमकिन था

आशुतोष गोवारीकर जैसे सामान्य निर्देशक का एक ख्वाब एक दिन ‘लगान‘ बनकर भारतीय सिनेमा को ऑस्कर तक पहुंचा देगा, 5 साल पहले ये उतना ही नामुमकिन था, जितना कि ‘भुवन‘ द्वारा शर्त मंजूरी के दिन मैच में जीत की बात; और भुवन की टीम तो सुनहरे पर्दे पर खेल रही थी, लेकिन आशुतोष की यूनिट वास्तविक जीवन में। दाद देनी पड़ेगी आशुतोष को जिसने कमर के भीषण दर्द के बावजूद एक महीने तक पूरी फिल्म का निर्देशन अपने बिस्तर से लेटकर किया, क्योंकि 6 महीने की एक सलंग शूटिंग के लिए भुज में सारी यूनिट एकत्र हुई थी; आमिर खान प्रोडक्शंस और झामू सुगंध की जिसने अपने डायरेक्टर के सपने को साकार करने के लिए विदेशी कलाकार ही नहीं, पुराने जमाने के क्रिकेट के बल्ले और ब्रिटिश महारानी की पेंटिंग्स तक को इंग्लैंड के संग्रहालयों से शूटिंग के लिए भुज मंगवा दिया; पात्रों के संवादों में अवधी, भोजपुरी और ब्रजभाषा बोली के नायाब मिश्रण के लिए के.पी. सक्सेना को, गीत के मुखड़ों के लिए जावेद अख्तर और संगीत के लिए ए.आर. रहमान को और सारे नायक-नायिकाओं को जिनमें से आमिर के अलावा किसी ने भी ‘सुपर स्टार‘ न होने के बावजूद उल्लेखनीय अभिनय किया है। भुज के पास सिर्फ शूटिंग के लिए ही बने पूरे चांपानेर गांव की तुलना सिर्फ फिल्म शोले के रामगढ़ से की जा सकती है।

अमेरिका में ऑस्कर के लिए नामांकरण और चयन के लिए फिल्म का बहुत अच्छा होना तो सिर्फ गंगोत्री है, ऑस्कर पुरस्कार के गंगासागर तक की लंबी यात्रा में है अमेरिकी तरीकों से फिल्म का प्रचार-प्रसार और 5000 से अधिक निर्णायकों में फिल्म के पहचान को बनाना, जिसके लिए भी आमिर और आशुतोष ने पिछले कई महीनों से तन, मन और काफी धन झोंक दिया है। जैसे ‘लगान‘ के यज्ञ में फल से सारा चांपानेर मुक्त हो गया था, ठीक उसी तरह आमिर-आशुतोष के इस ‘भगीरथी‘ प्रयास से और ‘लगान‘ को संभावित ‘ऑस्कर‘ मिलने से सारा बॉलीवुड फिल्म उद्योग आने वाले समय के लिए लाभान्वित हो जाएगा। भारतीय सिनेमा को भी विश्व में उसका सही सम्मान मिलेगा। अन्यथा ‘लगान‘ तो ऑस्कर के बिना भी भारतीय फिल्म उद्योग का उतना ही बड़ा मील का पत्थर है, जितनी कि ‘मुगल-ए-आजम‘ या ‘मदर इंडिया‘ या ‘शोले‘, जिनको कई बार देखने पर भी हर बार कुछ नया लगता है और फिल्म के छोटे से पात्र के अभिनय में भी निर्देशक की गलती ढूंढना असंभव-सा लगता है!

हिंसा और अश्लीलता के एक रेश मात्र से भी अस्पृश्य रहते हुए अत्याचार के विरोध और निःस्वार्थ प्रेम की ‘अपनी बोली, अपनी अलग भाषा‘ की इतनी सशक्त किंतु मार्मिक कथा होने के बावजूद ‘लगान‘ शुरू के हफ्तों में तो उन्हीं दिनों रिलीज हुई ‘गदर‘ से अमेरिका-इंग्लैंड के अप्रवासियों में तो कम चल रही थी, लेकिन अब तो हर किसी की जुबान पर 24 मार्च की शाम का इंतजार है। आज मैच की आखिरी गेंद है, चांपानेर की तरह ही बॉलीवुड का आंगन भी ‘ऑस्कर‘ की बूंदों से वंचित रहा है। पहले भी बॉलीवुड के इतिहास में ‘मदर इंडिया‘ और ‘सलाम बॉम्बे’ के लिए दो बार ऑस्कर के ‘घनन-घनन गिरिवर‘ गरजे तो थे, मगर बरसे नहीं। क्या आज रात ‘रस बरसेगा‘ और ‘लगान‘ और आमिर के करोड़ों चाहने वालों की खुशी ‘बूंदों के बाण‘ से तृप्त हो पाएगी; इसका फैसला तो अब वे ही करेंगे, ‘जिनके बिन हमरा कोई नहीं!’

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