रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून
पानी शब्द पढ़ते ही नईदुनिया के पाठकों को वो जल याद आ जाएगा, जो नल में कभी-कभी आता है और सावन में भी बरस नहीं रहा, लेकिन आज मेरा संकेत रहीम के उस ‘पानी‘ से नहीं- जिसके बिना ‘मोती‘ और ‘चून’ सून हो जाते हैं, वरन मनुष्य जीवन के चरित्र और ईमान के उस ‘पानी‘ से है, जिसके ओझल हो जाने से आज सारे विश्व का अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर से विश्वास ‘पानी-पानी‘ हो रहा है।
एक ओर जहां इंदौर में ‘इंद्र‘ की अनावृष्टि को मनाने के लिए यज्ञ-कर्म हो रहे हैं, वहीं दूसरी ओर अमेरिका में कुछ लालची और लोभी कंपनी मालिकों की ‘इंद्रियों‘ की अतिवृष्टि ने निवेशकों के खरबों डॉलर की जमा पूंजी को होम करके स्वाहा-सा कर दिया।
डो जोंस को आखिर हुआ क्या है?
10 दिनों तक लगातार गिरने के बाद कल पहली बार न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज का डो जोंस इन्डेक्स उन्मुक्त होकर 488 अंश चढ़ा है, जिससे सबकी सांस में सांस आई है। क्या यह बढ़त स्थायी है या सिर्फ चातक की स्वाति बूंद? ये तो वक्त ही बताएगा, लेकिन इसके पिछले महीनों में जो हुआ, उससे तो पूरा अमेरिका सिहर उठा है। अमेरिका की अर्थव्यवस्था तो पिछले 18 महीनों से सुस्त ही है, उस पर ओसामा के 11 सितंबर के वारों ने आग में घी का काम किया, लेकिन डॉट कॉम और आतंकवाद से ये घाव कुछ अलग हैं, क्योंकि ये अंदरूनी हैं। व्यवस्था की निष्पक्षता, सिस्टम की स्ट्रेंथ और कार्पोरेट गवर्नेंस का विश्व में पाठ पढ़ाने वाले राष्ट्र के खुद के पिछवाड़े में इतनी पोल? ऑडिटर्स, बैंकर्स, कंपनी के ऑफिसर्स और वॉल स्ट्रीट के दलालों की मिलीभगत ने मिलकर ऐसा तांडव मचाया है कि चरमराई आर्थिक परिस्थिति में ‘विश्वासघात‘ की दोहरी मार से अमेरिका के पूरे शेयर बाजार का मूल्यांकन मार्च 2000 के 17 ट्रिलियन डॉलर से घटकर सिर्फ 10 ट्रिलियन डॉलर रह गया है। 7 ट्रिलियन डॉलर का घाटा यानी भारत की सालाना जीडीपी का 16 गुना। नेस्डैक मार्च 2000 के 5000 इंडेक्स में तो लगभग 75 प्रतिशत की गिरावट आ गई है और 23 जुलाई तक सिर्फ 9 दिनों में डो इंडेक्स 18 प्रतिशत गिर गया था।
नहीं, बल्कि अमेरिका की अर्थव्यवस्था तो सुधार पर है, 2002 की पहली तिमाही में जीडीपी ने रिकॉर्ड 6 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की, ब्याज दर 1.75 प्रतिशत के न्यूनतम स्तर पर है, महंगाई भी नहीं के बराबर है। जो अवयव बिगड़ गया है, वह है कंपनियों के फाइनेंशियल स्टेटमेंट्स और उनके सीईओ और मुख्य अधिकारियों की नीयत और अपने अंशधारकों के प्रति जवाबदेही पर से लोगों का विश्वास, जो कि एनरॉन, एंडरसन, वर्ल्डकॉम, एडेलफिया और ऐसी कई नामी-गिरामी कंपनियों के इस साल में ‘काले चिट्ठों‘ के एक साथ उजागर होने से हिल गया है।
पितामह ग्रीनस्पेन उवाच
हाल ही में अमेरिकी सांसदों के सामने बोलते हुए फेडरल रिजर्व बैंक के चेयरमैन और अमेरिकी अर्थव्यवस्था के ‘पितामह भीष्म‘ एलन ग्रीनस्पेन ने इस मद को नया नाम दिया ‘इन्फेक्शियस ग्रीड।’ चातुर्मास में किसी संत के प्रवचन जैसे उद्गारों में उन्होंने कहा, ‘हमारे अधिकांश आर्थिक समुदाय को मानो ‘लालच की महामारी‘ ने ग्रस्त कर लिया है। ऐसा नहीं है कि आज का मानव पुरानी पीढ़ी के बजाय कुछ ज्यादा लोभी हो गया है, सच तो ये है कि आज उसकी लोभ-लालसा पूर्ति के साधन बहुत बढ़ गए हैं और इन सब साधनों की पंक्ति में सबसे मादक साबित हुए स्टॉक और स्टॉक ऑपशन्स।
कनक-कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय
90 के दशक में अमेरिका की आर्थिक प्रगति का सर्वोच्च परिचायक था, यहां के स्टॉक मार्केट के कुलांचे और अंशधारकों के स्टॉक्स की बढ़ती कीमत। कंपनियों के सारे मुख्य अधिकारियों के वेतन का मुख्य हिस्सा कंपनी के स्टॉक्स की प्रगति पर आधारित था और उद्देश्य बहुत साफ था। सब अधिकारी मिलकर कंपनी की प्रगति के लिए जी-जान लगाएंगे, जिससे होंगे कंपनी के अच्छे वार्षिक परिणाम और उससे बढ़ेगी स्टॉक की कीमत, जिससे अंशधारक, कर्मचारी और अधिकारी सभी लाभान्वित होंगे। 1995 से 2000 तक का ये ‘स्वर्णिम युग‘ तो हम सबको याद है। अधिकारियों और कर्मचारियों को तो घटे दरों से भविष्य में कंपनी के स्टॉक्स खरीदने के लिए लाखों स्टॉक ऑप्शन भी प्रदान किए जाते रहे और ये प्रचलन टेक्नालॉजी कंपनियों में सर्वाधिक था, जिसके अधिकांश प्रभाव तो काफी कारगर सिद्ध हुए।