रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून

26 जुलाई 2002
लेकिन ‘स्टॉक’ और ‘स्टॉक ऑप्शन’ की इस अंधी दौड़ में ‘मूल्यों’ पर ‘मूल्य’ कई जगह भारी पड़ने लगे

लेकिन ‘स्टॉक‘ और ‘स्टॉक ऑप्शन‘ की इस अंधी दौड़ में ‘मूल्यों‘ पर ‘मूल्य‘ कई जगह भारी पड़ने लगे। वॉल स्ट्रीट के एनालिस्ट्‌स ने शेयर के भाव बढ़ा लेने के लिए कंपनियों को अधिक मुनाफा दिखाने के लिए जोर दिया, कंपनियों के अफसरों ने जायज-नाजायज को ताक पर रख दिया और अकाउंटिंग की नई परिभाषा लिखते हुए कर्ज को भी कमाई में दिखाने जैसे कई अन्वेषण कर दिए, इतने बड़े और दूध देते क्लाइंट्‌स को नाराज करने के बजाय ऑडिटर्स ने भी अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली। बैंकों ने भी इन कंपनियों को अरबों डॉलर के लोन दिए और निवेशक समझता रहा कि उसकी कंपनी ‘सोना‘ उगल रही है। ‘सोना‘ तो उगला, लेकिन कुछ लोगों के लिए जिन्होंने अपने शेयर ऊंचे दामों पर बेच दिए। कंपनी को लोन मिलने के लिए बैंक को सीईओ की गारंटी तो सुनी थी, वर्ल्डकॉम के सीईओ के तो व्यक्तिगत लोन को भी कंपनी ने गारंटी दी थी और एडेलफिया के सीईओ के परिवार ने तो कंपनी में इतने निजी खर्चे डाले हैं, जिनके सामने तो इंदौर के मारोठिया और सियागंज के व्यापारी के भी खाते ज्यादा अच्छे प्रतीत होते हैं और इनके ऑडिटर्स थे डिलोइट और एंडरसन जैसी फर्में।

क्या ये हाल हर पब्लिक कंपनी और उसके ऑडिटर्स का है? नहीं। अधिकांश कंपनियों में ऐसा कुछ भी नहीं है, लेकिन कुछ मछलियों से ही सारे तालाब की आबोहवा खराब हो गई है। कौन है सच्चा, कौन है झूठा का जवाब किसी के पास नहीं है और उसी के रहते रोज इस ‘ब्लैक लिस्ट‘ में एक नए नाम के जुड़ने की आशंका मात्र से ही स्टॉक मार्केट्‌स में कमजोरी और दहशत हट नहीं पा रही है।

बुश-कुल रीति सदा चली आई

एनरॉन कंपनी और व्हाइट हाउस के संबंधों की चर्चा के कारण लोगों में ये भी आशंका है कि बुश-चेनी और रिपब्लिकंस को इन सब गोरखधंधों पर जितने त्वरित और तीव्र कदम उठाने थे, वे अभी तक नजर नहीं आए। यही नहीं, बुश और चेनी के भी व्हाइट हाउस से पहले के दिनों में कंपनियों के निदेशक पद पर उन कंपनियों के लेखे-जोखे पर भी सवाल उठ रहे हैं। वैसे भी बुश और उनकी कैबिनेट युद्ध के मामले में जितनी विशेषज्ञ लगती है, अर्थव्यवस्था में उतनी ही उदासीन। उसके लिए लोग क्लिंटन और रॉबर्ट रूबिन को याद करते हैं, हालांकि इन सब बबूलों के बीज बोए तो उन्हीं के कार्यकाल में गए थे।

सिर्फ एक कंपनी वर्ल्डकॉम ने विश्व का ‘सबसे बड़े दिवाला’ करते हुए 107 बिलियन डॉलर से दिवाला घोषित किया, जो कि भारत के सालाना जीडीपी का 25 प्रतिशत है

कुछ दिनों पहले तक भी बुश प्रशासन का ध्यान सद्दाम, ओसामा और दुनियाभर के आतंकवादियों को ‘चुन-चुन के मारने’ में ही अधिक नजर आता था। यहां तक कि पिछले दिनों में अर्थव्यवस्था पर बुश के सारे जोशीले भाषण निरर्थक सिद्ध हुए और वित्तमंत्री पॉल ओ नील को तो जैसे कोई जानता ही नहीं है। 11 सितंबर के बाद बुश ने देश को जो प्रभावी नेतृत्व प्रदान किया था, आज भी अमेरिका वैसे ही किसी आशापुंज की तलाश में है। बुश के द्वारा दी गई टैक्सेस में कटौती के कारण देश का बजट एक साल में ही सरप्लस से डेफिसिट में चला गया है। इराक से युद्ध के बादल बरकरार हैं, देश का आंतरिक सुरक्षा खर्च बहुत बढ़ गया है और अमेरिका पर आतंकवाद के पुनः आक्रमण की आशंका भी। ऐसे में लोगों को बार-बार पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के कार्यकाल की परछाई नजर आती है। जब अमेरिका ने गल्फ वार लड़ा था, अर्थव्यवस्था पटरी से उतर गई थी और बुश क्लिंटन से 1992 में हारे थे। इस साल भी नवंबर में कांग्रेस के चुनाव रिपब्लिकंस को जिताने के लिए बुश को अर्थव्यवस्था को संभालना जरूरी है।

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