रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून

26 जुलाई 2002

रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सूनपानी शब्द पढ़ते ही नईदुनिया के पाठकों को वो जल याद आ जाएगा, जो नल में कभी-कभी आता है और सावन में भी बरस नहीं रहा, लेकिन आज मेरा संकेत रहीम के उस ‘पानी‘ से नहीं- जिसके बिना ‘मोती‘ और ‘चून’ सून हो जाते हैं, वरन मनुष्य जीवन के चरित्र और ईमान के उस ‘पानी‘ से है, जिसके ओझल हो जाने से आज सारे विश्व का अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर से विश्वास ‘पानी-पानी‘ हो रहा है।

एक ओर जहां इंदौर में ‘इंद्र‘ की अनावृष्टि को मनाने के लिए यज्ञ-कर्म हो रहे हैं, वहीं दूसरी ओर अमेरिका में कुछ लालची और लोभी कंपनी मालिकों की ‘इंद्रियों‘ की अतिवृष्टि ने निवेशकों के खरबों डॉलर की जमा पूंजी को होम करके स्वाहा-सा कर दिया।

डो जोंस को आखिर हुआ क्या है?

10 दिनों तक लगातार गिरने के बाद कल पहली बार न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज का डो जोंस इन्डेक्स उन्मुक्त होकर 488 अंश चढ़ा है, जिससे सबकी सांस में सांस आई है। क्या यह बढ़त स्थायी है या सिर्फ चातक की स्वाति बूंद? ये तो वक्त ही बताएगा, लेकिन इसके पिछले महीनों में जो हुआ, उससे तो पूरा अमेरिका सिहर उठा है। अमेरिका की अर्थव्यवस्था तो पिछले 18 महीनों से सुस्त ही है, उस पर ओसामा के 11 सितंबर के वारों ने आग में घी का काम किया, लेकिन डॉट कॉम और आतंकवाद से ये घाव कुछ अलग हैं, क्योंकि ये अंदरूनी हैं। व्यवस्था की निष्पक्षता, सिस्टम की स्ट्रेंथ और कार्पोरेट गवर्नेंस का विश्व में पाठ पढ़ाने वाले राष्ट्र के खुद के पिछवाड़े में इतनी पोल? ऑडिटर्स, बैंकर्स, कंपनी के ऑफिसर्स और वॉल स्ट्रीट के दलालों की मिलीभगत ने मिलकर ऐसा तांडव मचाया है कि चरमराई आर्थिक परिस्थिति में ‘विश्वासघात‘ की दोहरी मार से अमेरिका के पूरे शेयर बाजार का मूल्यांकन मार्च 2000 के 17 ट्रिलियन डॉलर से घटकर सिर्फ 10 ट्रिलियन डॉलर रह गया है। 7 ट्रिलियन डॉलर का घाटा यानी भारत की सालाना जीडीपी का 16 गुना। नेस्डैक मार्च 2000 के 5000 इंडेक्स में तो लगभग 75 प्रतिशत की गिरावट आ गई है और 23 जुलाई तक सिर्फ 9 दिनों में डो इंडेक्स 18 प्रतिशत गिर गया था।

7 ट्रिलियन डॉलर का घाटा यानी भारत की सालाना जीडीपी का 16 गुना

नहीं, बल्कि अमेरिका की अर्थव्यवस्था तो सुधार पर है, 2002 की पहली तिमाही में जीडीपी ने रिकॉर्ड 6 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की, ब्याज दर 1.75 प्रतिशत के न्यूनतम स्तर पर है, महंगाई भी नहीं के बराबर है। जो अवयव बिगड़ गया है, वह है कंपनियों के फाइनेंशियल स्टेटमेंट्‌स और उनके सीईओ और मुख्य अधिकारियों की नीयत और अपने अंशधारकों के प्रति जवाबदेही पर से लोगों का विश्वास, जो कि एनरॉन, एंडरसन, वर्ल्डकॉम, एडेलफिया और ऐसी कई नामी-गिरामी कंपनियों के इस साल में ‘काले चिट्ठों‘ के एक साथ उजागर होने से हिल गया है।

पितामह ग्रीनस्पेन उवाच

हाल ही में अमेरिकी सांसदों के सामने बोलते हुए फेडरल रिजर्व बैंक के चेयरमैन और अमेरिकी अर्थव्यवस्था के ‘पितामह भीष्म‘ एलन ग्रीनस्पेन ने इस मद को नया नाम दिया ‘इन्फेक्शियस ग्रीड।’ चातुर्मास में किसी संत के प्रवचन जैसे उद्‌गारों में उन्होंने कहा, ‘हमारे अधिकांश आर्थिक समुदाय को मानोलालच की महामारी‘ ने ग्रस्त कर लिया है। ऐसा नहीं है कि आज का मानव पुरानी पीढ़ी के बजाय कुछ ज्यादा लोभी हो गया है, सच तो ये है कि आज उसकी लोभ-लालसा पूर्ति के साधन बहुत बढ़ गए हैं और इन सब साधनों की पंक्ति में सबसे मादक साबित हुए स्टॉक और स्टॉक ऑपशन्स।

कनक-कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय

90 के दशक में अमेरिका की आर्थिक प्रगति का सर्वोच्च परिचायक था, यहां के स्टॉक मार्केट के कुलांचे और अंशधारकों के स्टॉक्स की बढ़ती कीमत। कंपनियों के सारे मुख्य अधिकारियों के वेतन का मुख्य हिस्सा कंपनी के स्टॉक्स की प्रगति पर आधारित था और उद्देश्य बहुत साफ था। सब अधिकारी मिलकर कंपनी की प्रगति के लिए जी-जान लगाएंगे, जिससे होंगे कंपनी के अच्छे वार्षिक परिणाम और उससे बढ़ेगी स्टॉक की कीमत, जिससे अंशधारक, कर्मचारी और अधिकारी सभी लाभान्वित होंगे। 1995 से 2000 तक का ये ‘स्वर्णिम युग‘ तो हम सबको याद है। अधिकारियों और कर्मचारियों को तो घटे दरों से भविष्य में कंपनी के स्टॉक्स खरीदने के लिए लाखों स्टॉक ऑप्शन भी प्रदान किए जाते रहे और ये प्रचलन टेक्नालॉजी कंपनियों में सर्वाधिक था, जिसके अधिकांश प्रभाव तो काफी कारगर सिद्ध हुए।

लेकिन ‘स्टॉक’ और ‘स्टॉक ऑप्शन’ की इस अंधी दौड़ में ‘मूल्यों’ पर ‘मूल्य’ कई जगह भारी पड़ने लगे

लेकिन ‘स्टॉक‘ और ‘स्टॉक ऑप्शन‘ की इस अंधी दौड़ में ‘मूल्यों‘ पर ‘मूल्य‘ कई जगह भारी पड़ने लगे। वॉल स्ट्रीट के एनालिस्ट्‌स ने शेयर के भाव बढ़ा लेने के लिए कंपनियों को अधिक मुनाफा दिखाने के लिए जोर दिया, कंपनियों के अफसरों ने जायज-नाजायज को ताक पर रख दिया और अकाउंटिंग की नई परिभाषा लिखते हुए कर्ज को भी कमाई में दिखाने जैसे कई अन्वेषण कर दिए, इतने बड़े और दूध देते क्लाइंट्‌स को नाराज करने के बजाय ऑडिटर्स ने भी अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली। बैंकों ने भी इन कंपनियों को अरबों डॉलर के लोन दिए और निवेशक समझता रहा कि उसकी कंपनी ‘सोना‘ उगल रही है। ‘सोना‘ तो उगला, लेकिन कुछ लोगों के लिए जिन्होंने अपने शेयर ऊंचे दामों पर बेच दिए। कंपनी को लोन मिलने के लिए बैंक को सीईओ की गारंटी तो सुनी थी, वर्ल्डकॉम के सीईओ के तो व्यक्तिगत लोन को भी कंपनी ने गारंटी दी थी और एडेलफिया के सीईओ के परिवार ने तो कंपनी में इतने निजी खर्चे डाले हैं, जिनके सामने तो इंदौर के मारोठिया और सियागंज के व्यापारी के भी खाते ज्यादा अच्छे प्रतीत होते हैं और इनके ऑडिटर्स थे डिलोइट और एंडरसन जैसी फर्में।

क्या ये हाल हर पब्लिक कंपनी और उसके ऑडिटर्स का है? नहीं। अधिकांश कंपनियों में ऐसा कुछ भी नहीं है, लेकिन कुछ मछलियों से ही सारे तालाब की आबोहवा खराब हो गई है। कौन है सच्चा, कौन है झूठा का जवाब किसी के पास नहीं है और उसी के रहते रोज इस ‘ब्लैक लिस्ट‘ में एक नए नाम के जुड़ने की आशंका मात्र से ही स्टॉक मार्केट्‌स में कमजोरी और दहशत हट नहीं पा रही है।

बुश-कुल रीति सदा चली आई

एनरॉन कंपनी और व्हाइट हाउस के संबंधों की चर्चा के कारण लोगों में ये भी आशंका है कि बुश-चेनी और रिपब्लिकंस को इन सब गोरखधंधों पर जितने त्वरित और तीव्र कदम उठाने थे, वे अभी तक नजर नहीं आए। यही नहीं, बुश और चेनी के भी व्हाइट हाउस से पहले के दिनों में कंपनियों के निदेशक पद पर उन कंपनियों के लेखे-जोखे पर भी सवाल उठ रहे हैं। वैसे भी बुश और उनकी कैबिनेट युद्ध के मामले में जितनी विशेषज्ञ लगती है, अर्थव्यवस्था में उतनी ही उदासीन। उसके लिए लोग क्लिंटन और रॉबर्ट रूबिन को याद करते हैं, हालांकि इन सब बबूलों के बीज बोए तो उन्हीं के कार्यकाल में गए थे।

सिर्फ एक कंपनी वर्ल्डकॉम ने विश्व का ‘सबसे बड़े दिवाला’ करते हुए 107 बिलियन डॉलर से दिवाला घोषित किया, जो कि भारत के सालाना जीडीपी का 25 प्रतिशत है

कुछ दिनों पहले तक भी बुश प्रशासन का ध्यान सद्दाम, ओसामा और दुनियाभर के आतंकवादियों को ‘चुन-चुन के मारने’ में ही अधिक नजर आता था। यहां तक कि पिछले दिनों में अर्थव्यवस्था पर बुश के सारे जोशीले भाषण निरर्थक सिद्ध हुए और वित्तमंत्री पॉल ओ नील को तो जैसे कोई जानता ही नहीं है। 11 सितंबर के बाद बुश ने देश को जो प्रभावी नेतृत्व प्रदान किया था, आज भी अमेरिका वैसे ही किसी आशापुंज की तलाश में है। बुश के द्वारा दी गई टैक्सेस में कटौती के कारण देश का बजट एक साल में ही सरप्लस से डेफिसिट में चला गया है। इराक से युद्ध के बादल बरकरार हैं, देश का आंतरिक सुरक्षा खर्च बहुत बढ़ गया है और अमेरिका पर आतंकवाद के पुनः आक्रमण की आशंका भी। ऐसे में लोगों को बार-बार पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के कार्यकाल की परछाई नजर आती है। जब अमेरिका ने गल्फ वार लड़ा था, अर्थव्यवस्था पटरी से उतर गई थी और बुश क्लिंटन से 1992 में हारे थे। इस साल भी नवंबर में कांग्रेस के चुनाव रिपब्लिकंस को जिताने के लिए बुश को अर्थव्यवस्था को संभालना जरूरी है।

कितने गहरे हैं ये घाव?

सिर्फ एक कंपनी वर्ल्डकॉम ने विश्व का ‘सबसे बड़े दिवाला’ करते हुए 107 बिलियन डॉलर से दिवाला घोषित किया, जो कि भारत के सालाना जीडीपी का 25 प्रतिशत है। ये सारे पैसे डूबे नहीं हैं, लेकिन उनके लेनदारों के लिए अब बहुत लंबा सफर है। ये तो सिर्फ एक ही नाम है, पूरी फेहरिस्त तो सुरसा की तरह बढ़ती ही जा रही है। सबसे गहरी घात लगी है अमेरिका की जनता के शेयर्स में लगी जमा पूंजी पर। अमेरिका की लगभग 55 प्रतिशत आबादी शेयर मार्केट में प्रत्यक्ष या म्यूच्युअल फंड के जरिये निवेश करती है, क्योंकि दीर्घ अवधि के लिए पूंजी निवेश का ये सर्वोत्तम साधन रहा है।

यही नहीं, भारत के प्रोविडेंट फंड के समक्ष यहां के 401-के रिटायरमेंट फंड का खरबों डॉलर भी स्टॉक मार्केट में ही लगा हुआ है। इन सारी पेंशन योजनाओं की पूंजी औनी-पौनी रह गई है और अब ये दोबारा कब बढ़ेगी, कोई नहीं जानता। यही नहीं, अमेरिका के स्टॉक मार्केट में तो सारे विश्व का व्यक्तिगत और संस्थागत निवेश होता है, क्योंकि ये सबसे सुरक्षित माना जाता है। अब उस पर भी कुछ प्रश्न चिह्न हैं, उसी के रहते यूरो करंसी भी डॉलर के कंधे से कंधा मिला रही है। ओसामा ने तो अमेरिका की जान और माल के ढांचे को ही ठेस पहुंचाई थी, डो के इस गिरते धारावाहिक ने तो व्यवस्था की बुनियाद को ही झकझोर दिया है।

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