क्या खतरा मात्र आर्थिक शक्ति बढ़ने से है?

29 जुलाई 1992

jm_jrd5_profile_picमारे देश के सामने समाजवादी अर्थव्यवस्था का ढांचा रखा गया है। अगर समाजवाद का अर्थ सभी को समान अधिकार और मौके, दलितों के ऊपर उठने के उचित अवसर और न्यायप्रिय वैधानिक समाज व्यवस्था से है, तो मैं उस समाजवाद का पक्षधर हूं, परंतु अगर उस समाजवाद का तात्पर्य व्यक्तिगत प्रयत्नों पर पाबंदी, उद्योगों पर सरकार के नियंत्रण और निजी इच्छा के विपरीत सरकार द्वारा निर्धारित मापदंडों के अनुसार जीवन-यापन से है, तो मैं ऐसे समाजवाद के सख्त खिलाफ हूं। किसी भी व्यक्ति को अपनी निजी और पारिवारिक जरूरतों का पूरा करने के मार्ग में निर्धारित बनकर बैठने वाली व्यवस्था कैसे प्रशंसनीय हो सकती है?’

कन्सनट्रेशन ऑफ इकोनोमिक पावर

‘हमारे नेताओं के भाषण सुनकर तो ऐसा लगने लगा है, मानो हमारे देश को बढ़ती हुई आबादी, सांप्रदायिकता, गरीबी, बेरोजगारी आदि किसी से भी नहीं, बल्कि सिर्फ आर्थिक शक्ति के एकत्रित होने से खतरा है। अगर निजी हाथों में आर्थिक शक्ति है, तो उसका सीधा तात्पर्य उपयुक्त स्थानों पर मनचाहे उद्योग लगाने की स्वतंत्रता, बाजार से आवश्यकतानुसार पैसा उधार अथवा अंशों के जरिये एकत्रित करने की आजादी और मनचाही शर्तों पर कर्मचारियों को नियुक्त करने की खुली छूट से है। परंतु इनमें से ऐसी कोई भी चीज नहीं है, जो हमारे देश का उद्योगपति स्वेच्छा से कर सकता है। तो फिर उसकी आर्थिक शक्ति का क्या फायदा। सही मायनों मे तो ‘कन्सनट्रेशन ऑफ इकोनोमिक पॉवर हमारे सरकारी अफसरों और मंत्रियों के पास है, जिससे कि देश की प्रगति को वास्तविक खतरा है।

(उपरोक्त विचार वर्तमान आर्थिक परिवर्तनों के पूर्व व्यक्त किए गए हैं।)

मूल्य एवं आस्था

‘दुःख का विषय है कि मूल्य आधारित सभ्यता अब समाप्त हो गई है। मैं जिन मूल्यों व स्तर का अनुसरण करने का प्रयास करता हूं, वह मुझे जमशेदजी टाटा से मिले हैं और मैं उनका सम्मान करता हूं। स्वतंत्रता के बाद अधिक काला धन बनाने के साथ मूल्यों का ह्रास अधिक हुआ है। आज मोटे तौर पर मूल्यों में तो बहुत बदलाव नहीं आया है। हां, हमारे द्वारा उन्हें दिए जाने वाले महत्व में आमूल परिवर्तन हो गया है।

वह मेरी जिंदगी का पहला अवसर था, जब मेरे पास करोड़ रुपए अथवा कई लाख रुपए निजी संपदा के रूप में आए थे

मूल्यों में आई गिरावट के मेरे मान से प्रमुख कारण कुछ इस प्रकार हैं। पहला, विज्ञान और प्रौद्योगिकी की प्रगति ने धर्म पर से हमारी आस्था को डिगा दिया है, जो कि पुरातन समय में हमारे नैतिक आचरण का सबसे बड़ा संबल थी। दूसरा, यथार्थवाद और आर्थिक उपलब्धि की अंधी दौड़ ने मनुष्य को इतना स्वार्थी बना दिया है कि उसे अपने हितों के आगे कुछ दिखाई नहीं देता। तीसरा, हमारे देश में सरकारी कर्मचारियों को दी जाने वाली ‘शर्मनाक‘ तनख्वाह और उसके साथ उनके हाथों में लाइसेंस-परमिट देने का मनमाना अधिकार। अगर हमें मूल्यों को वहीं उनके उचित स्थान और गौरव पर लौटाना है तो इन सब मुश्किलों के उपाय तो ढूंढने ही पड़ेंगे।’

पुरस्कार और सम्मान

‘मुझे देश-विदेश में कई पुरस्कार मिले हैं, हालांकि मेरी उनके लिए पात्रता कदापि नहीं थी। परंतु अपने जीवन में मुझे सबसे ज्यादा खुशी दादाभाई नौरोजी सम्मान पाकर हुई। वह इसलिए कि यह वह व्यक्ति था, जिसने सही मायनों में समाज सुधार का बीड़ा उठाया था। उनकी शिक्षा पूर्ण होने के बाद जब उन्हें ज्ञात हुआ कि कॉलेज का अधिकांश खर्च सरकार की ओर से मिलता है, जो उसे गरीबों से लिए गए कर में से देती है। बस, तभी उन्हें लग गया कि उनकी शिक्षा का खर्च तो उन गरीबों ने उठाया है, जिन्हें खुद पढ़ना भी नहीं आता।

दादाभाई घर-घर जाते थे और लोगों के घरों के द्वार के समीप ही बैठकर उनके बच्चों को पढ़ना-लिखना सिखाते थे। मुझे तो यह सब आश्चर्यजनक लगता है। इसीलिए, मुझे दादाभाई नौरोजी सम्मान मिलने पर जो आनंद की अनुभूति हुई, वह ‘भारत रत्न’ मिलने पर भी नहीं हुई।’

निजी संपदा

‘मेरे पास कभी भी ज्यादा पैसा नहीं रहा। मेरे पिताजी जरूर अमीर बन सकते थे, परंतु पांच बच्चों और खर्चीली तबीयत ने उन्हें ऐसा नहीं होने दिया। यहां तक कि मरते समय तो वे कर्ज में ही गए। मेरे पास सिर्फ निदेशक की फीस के रूप में जो पैसा आता था, वही थोड़ा-बहुत जमा है। वैसे वर्षों पहले मेरी पत्नी और मैंने एक फ्लैट खरीदा था, अपने बुढ़ापे का जीवन चैन से बसर करने के लिए। पर हम अपने वर्तमान मकान में ही खुश हैं, इसलिए हमने उस फ्लैट को बेचने का निर्णय ले लिया। अब, हमने जो फ्लैट 5-10 लाख रुपयों में खरीदा था, उसकी कीमत मुझे और मेरी पत्नी को 4 करोड़ मिली। वह मेरी जिंदगी का पहला अवसर था, जब मेरे पास करोड़ रुपए अथवा कई लाख रुपए निजी संपदा के रूप में आए थे।

संपत्ति कर चुकाने के बाद भी हमारे पास साढ़े तीन करोड़ रुपए बच गए। मेरे और मेरी पत्नी के विचार इस विषय में मिलते हैं। अब हमें ज्यादा वर्ष तो जीना नहीं है, फिर इतने पैसे का क्या उपयोग? और फिर, जिस चीज के हमने सिर्फ कुछ लाख रुपए दिए हों, उसके बदले में हमें करोड़ों रुपए मिल जाएं, यह तो उचित नहीं है। इसलिए मैंने और मेरी पत्नी ने वह पैसा एक ट्रस्ट के जरिये परमार्थ में महिलाओं और बच्चों के हित में लगाने का निर्णय किया है।’

आबादी

‘मैं तो इस ओर सन्‌ 1951 से सबका ध्यान खींच रहा हूं। उसी साल मैंने एक बार पंडित नेहरू का ध्यान इस समस्या की ओर चाहा था, ‘क्या बात करते हो! हमारी जनसंख्या ही तो हमारे राष्ट्र की सबसे बड़ी शक्ति है।‘ 1951 में ही मैंने एक सभा में सब उपस्थित श्रोताओं को चेतावनी दी थी कि अगर समय रहते कारगर कदम नहीं उठाए गए तो 1951 की हमारी 35 करोड़ की आबादी में 35 वर्षों में 20 करोड़ की वृद्धि हो जाएगी। (जे.आर.डी. ने अपने साथी नागरिकों की ‘उत्पादकता‘ को कम आंका था। 35 वर्षों में आबादी में लगभग 34 करोड़ की वृद्धि हो गई)।

मैं तो भारत की पूरी युवा पीढ़ी का ध्यान इस ओर खींचना चाहता हूं। हम लोग इस समस्या की जटिलता का शायद अनुमान ही नहीं लगा पा रहे हैं। मेरा ऐसा दृढ़ विचार है कि हर समस्या का हल खोजा जा सकता है, बशर्ते हम उस समस्या को मानें और उसकी गंभीरता को पहचानें। शिक्षा, महिला रोजगार, जन्म दर पर नियंत्रण, संचार माध्यमों और अन्य प्रोत्साहन साधनों का प्रभावी उपयोग, अगर यह सभी एक साथ युद्ध स्तर पर किया जाए तो जनसंख्या वृद्धि पर अवश्य नियंत्रण पाया जा सकता है। मैंने तो सन्‌ 1970 में ही परिवार नियोजन निधि की स्थापना कर दी थी। शिक्षा और साक्षरता का तो जनसंख्या नियंत्रण से सीधा रिश्ता है। हमारे सामने केरल और राजस्थान के ज्वलंत उदाहरण हैं। केरल में साक्षरता अधिकतम और जनसंख्या वृद्धि दर पूरे देश में न्यूनतम है। वहीं, राजस्थान में स्थिति बिलकुल विपरीत है। अगर हमने आबादी की बढ़ती रफ्तार पर काबू पा लिया तो हमारी अधिकांश समस्याएं खुद ही हल हो जाएंगी।’

रतन टाटा

समस्याओं को समझने और उन पर सभी कोणों से विचार करने की उसकी क्षमता बहुत अच्छी है। उसे मुझसे कहीं बेहतर शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिला है। रतन का एक टाटा होना उसके अध्यक्ष पद तक पहुंचने में कदापि सहायक नहीं था। उसकी खूबी है- उसकी प्रबंधकीय क्षमता और प्रबंधन के सभी आधुनिक तरीकों का समझने की बुद्धि। मैं तो समूह को सिर्फ मूल्यों के आधार पर रख पाया, परंतु उसके पास तो मूल्य भी है और बुद्धि भी।’

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