क्या कुछ थम रहा है अमेरिका का आर्थिक अश्वमेध

7 जनवरी 2001

क्या कुछ थम रहा है अमेरिका का आर्थिक अश्वमेध90 के दशक में आर्थिक उत्थान के एक लंबे दौर के बाद अमेरिका की अर्थव्यवस्था का रथ कुछ-कुछ थमने लगा। बेरोजगारी बढ़ने लगी और कंपनियों के दिवाले बढ़ने लगे। उन्हीं दिनों के माहौल पर एक नजर।

1999 का साल अमेरिका के आर्थिक इतिहास के स्वर्णिम युग का चरमोत्कर्ष था। पूरे साल में डू जोंस इंडेक्स (डीओडब्ल्यू इंडेक्स) ने 25 प्रतिशत और ज्यादा प्रचलित नास्दाक ने 85 प्रतिशत की वृद्धि हासिल की थी। 1952 में तत्कालीन आबादी का सिर्फ चार प्रतिशत अमेरिकी शेयर बाजार में पैसा लगा था, वहीं वर्तमान 28 करोड़ की आबादी का 49 प्रतिशत प्रत्यक्ष-परोक्ष में शेयर बाजार में पैसा लगाने लगे थे।

इंटरनेट इकॉनोमी अपने पूरे जोर पर थी और इसी के चलते ‘टाइम‘ पत्रिका ने वर्ष 1999 के लिए ‘मैन ऑफ द ईयर’ का खिताब दिया ‘अमेजोन डॉट कॉम‘ के संस्थापक जैफ बिजोस को, जो खुद और उनकी कंपनी ‘अमेजोन डॉट कॉम’ कई मायनों में इंटरनेट और डॉट कॉम ई- कॉमर्स युग के परिचायक बन गए थे। ठीक 12 महीने बाद उसी टाइम पत्रिका के साल के पहले अंक के मुख्य पृष्ठ पर कहानी का शीर्षक है- ‘आने वाली आर्थिक मंदी में कैसे जिया जाए।‘ सिर्फ 365 दिनों में ऐसा क्या बदल गया कि अमेरिका में चर्चा जैफ बिजोस से मंदी तक पहुंच गई और क्या वाकई अमेरिका आर्थिक मंदी के कगार पर खड़ा है, क्या यह भी बिजोस की ही तरह मीडिया जनित अधिक है। इसी सवाल का कोई हां या ना में जवाब देना मुश्किल है, पर आज मैं आपके सामने अमेरिका का वर्तमान आर्थिक परिदृश्य और संभावनाएं अवश्य रखना चाहता हूं।

स्वर्णिम अध्याय

क्लिंटन प्रशासन के 8 साल अमेरिका के इतिहास का स्वर्णिम युग ही कहलाएंगे। मोनिका प्रकरण से व्हाइट हाउस की छवि जरूर धूमिल हो गई, पर वॉल स्ट्रीट पर छाई तेजी की चमक ने मानो उस दाग को ढंक दिया। अमेरिका ने दो हजार के पूर्वार्ध में अपने 225 वर्ष के इतिहास की सर्वाधिक लंबी इकॉनोमिक एक्सपांशन के सौ महीने पूरे किए। बेरोजगारी की दर न्यूनतम पर रही और साथ ही साथ महंगाई (इनफ्लेशन) भी बिलकुल कम। 1992 में मंदी के कगार पर खड़ा देश और अरबों डॉलर के बजट घाटे से मुड़कर आज अमेरिकी सरकार का बजट अरबों के आधिक्य (सरप्लस) का बजट होता है। यह सब संभव हो पाया क्लिंटन के नेतृत्व और उनके अपने सलाहकारों की जुगलबंदी द्वारा जिसके सरताज थे अमेरिका के फेडरल रिजर्व के चेयरमैन एलन ग्रीनस्पान।

72 वर्षीय ग्रीनस्पान सही मायनों में अर्थव्यवस्था के मेस्ट्रो हैं

एलन ग्रीनस्पान : उस्ताद

एलन ग्रीनस्पान की जीवनी पर पिछले दिनों एक किताब निकली है, जिसका टाइटल है ‘मेस्ट्रो‘ (यानी अपने फन का उस्ताद)। 72 वर्षीय ग्रीनस्पान सही मायनों में अर्थव्यवस्था के मेस्ट्रो हैं, एक हैरत अंगेज व्यक्ति जिसे सब ठीक चलने पर भी खुटका लगा ही रहता है कि शायद कुछ ठीक नहीं जो पिछले 20 सालों से हर दिन, हर घंटे लगभग 150 विभिन्न आर्थिक सूचकांक देखता और स्टडी करता है और जिसके सिर्फ एक शब्द से दुनिया के स्टॉक मार्केट ऊपर-नीचे हो जाते हैं। उनके पास सिर्फ एक तार है- फेडरल बैंक की ब्याज की दरें – जिसकी जरा-सी झंकार से वो पूरी अर्थव्यवस्था को सही मार्ग दिखाने का प्रयास करते हैं और पिछले कई सालों से सफल हैं। तभी तो इस साल उन्हें अपना चार वर्षीय कार्यकाल समाप्त होने पर चौथी बार अपने पद पर बने रहने के लिए क्लिंटन ने फिर नियुक्त कर दिया। क्योंकि इसी व्यक्ति के आर्थिक निर्देशों तले अमेरिका ने पिछले सालों में न सिर्फ प्रगति की, वरन विश्व में आई आर्थिक विपदाओं से देशों को उबारने में मदद की। लेकिन ग्रीनस्पान की सफलता के पीछे उनके पांडित्य के साथ छिपा है क्लिंटन और प्रशासन का उन पर विश्वास और उनको दी गई पूरी छूट।

इंटरनेट और डॉट कॉम

इस आर्थिक प्रगति की पूरी ट्रेन को खींच रहा था टेक्नोलॉजी का इंजन, जिसके रहते कुशलता और उत्पादकता कई गुना बढ़ रही थी और फिर आया इंटरनेट-जिसने तो एक पूरे नए समाज और जीने की शैली को ही जन्म दे दिया। अब इंटरनेट और डॉट कॉम कंपनियों के विस्तार के बारे में क्या लिखना, सब जगजाहिर है। पर जो परी कथाओं और महीनों में रंक से राजा बनते हुए इंटरनेट और डॉट कॉम युग ने दिखाया, वह विगत इतिहास में तो किसी को याद नहीं। इस नई व्यवस्था में, जिसमें आपके पास पैसा नहीं, लेकिन आइडिया और उसे सच करने की इच्छा और कार्यशक्ति होना चाहिए, पैसा और साधन देने वाले कई मिल जाएंगे। इसके रहते दुनिया के बदलने की गति ही बदल गई।

स्वर कब और कैसे बिगड़े

जब सब इतना अच्छा चल रहा था तो फिर स्वर कहां और कैसे बदले? किसी एक बॉल पर हाथ रखना तो बहुत कठिन है कि मैच यहां पलट गया, क्योंकि प्रगति ही की तरह यह भी कई अवयवों के मिले-जुले असर से होता है। काफी समय से ग्रीनस्पान ने चिंता व्यक्त की थी कि इतनी द्रुत गति से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था से महंगाई बहुत बढ़ सकती है। इसके चलते मार्च 1999 में जो ब्याज की दर 4.75 प्रतिशत पर टिकी थी उसे धीरे-धीरे जून 2000 तक ग्रीनस्पान और फेडरल रिजर्व ने 6.50 प्रतिशत तक बढ़ा दिया और विशेषज्ञों का मानना है कि इस जून की उनकी 0.50 प्रतिशत की आखिरी बाजी शायद कारगर होने की बजाय घातक सिद्ध हो गई। फिर भी अमेरिका तो मानो हिलोरे मार रहा था।

1999 की आखिरी तिमाही में यहां का जीडीपी 8.2 प्रतिशत की दर से बढ़ गया और यह कोई साधारण अर्थव्यवस्था का जीडीपी नहीं, बल्कि विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था (अमेरिका का सालाना जीडीपी 10 ट्रिलियन डॉलर यानी 470 लाख करोड़ रुपए है) की सिर्फ एक क्वार्टर (तिमाही) की ऐसी ग्रोथ रेट!

हाथी को बैठते भी समय लगता है

लेकिन ग्रीनस्पान की ब्याज बढ़ोतरी का मानो असर ही नहीं हो रहा था। 10 मार्च 2000 को तो नास्दाक अपने शीर्ष 5000 को पार कर गया। यही वो दिन है जब रोज भारतीय अखबार प्रेमजी और नारायण मूर्ति की संपदा के दिन-दर-दिन घट-बढ़ के समाचार छाप रहे थे और अमेरिका में डॉट कॉम कंपनियां सौ साल पुरानी कंपनियों से कहीं ऊंची आंकी जा रही थीं, बगैर किसी मुनाफे के। क्योंकि सभी का मानना था कि इनके ग्रोथ पोटेंशियल गुणातीत हैं, कमाई तो जीवनभर कर ही लेंगे। आज तो अपना ब्रांड स्थापित करने में पैसा फूंक दो, और पैसा भी आसानी से मिला था वेंचर कैपिटलिस्ट से, जिसके पीछे कोई मकान-दुकान गिरवी नहीं थे। इन्हीं दिनों अमेरिका में कोर्ट ने माइक्रोसॉफ्ट के बंटवारे की खबर सुनाई और बाजार अचानक लुढ़क गए। कहीं-कहीं पर सुगबुगाहट आने लगी थी कि क्या घाटे की कंपनियों के ये गगनचुंबी भाव सही हैं, पर इतने अच्छे दिवास्वप्न को कौन टूटता देखना चाहता था।

सितंबर-अक्टूबर तक तो शेयरों के भाव लगातार गिरने लगे, लेकिन सबसे पहले गाज गिरी इन्हीं डॉट कॉम कंपनियों पर, जिनमें से कई के भाव तो 100 डॉलर से सीधे 1 डॉलर पर उतर आए। डॉट कॉम कंपनियां बंद होने लगीं, लेकिन फिर भी यह अहसास बना रहा कि टेक्नोलॉजी में कार्य कर रही मूल कंपनियों जैसे सिस्को, माइक्रोसॉफ्ट, इनटेल आदि में तो सब ठीक चल रहा है और इनमें तेजी बनी रहेगी और परेशानी सिर्फ स्टॉक मार्केट तक ही तो है। अर्थव्यवस्था एकदम चुस्त-दुरुस्त है, लेकिन जो अखबार लाखों कमाने की कहानी छापते थे वो करोड़ों खोने वालों को कवर करने लगे। सब कुछ ठीक था, लेकिन फिर भी दिलों में आशंका के बादल उठने लगे थे कि क्या सब ठीक है या सिर्फ लग रहा है।

उसके बाद इस साल की तीसरी तिमाही के जीडीपी ग्रोथ रेट के आंकड़े आए, जिन्होंने चौंका दिया। दूसरे क्वार्टर की 5.6 प्रतिशत की ग्रोथ रेट तीसरे क्वार्टर में एकदम 2.2 प्रतिशत पर ही ठिठक गई। इन्हीं दिनों अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव का भी गुबार छाया रहा। पिछले 20 साल में पहली बार नवंबर में राष्ट्रपति चुनावों के वक्त भी मार्केट सोते रहे। कुछ लगा कि चुनाव से जुड़ी उलझनों से मार्केट अस्पष्टता से घबराता है, इसलिए दबा है और बुश के चुनते ही सब ठीक हो जाएगा, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ और तोप की सलामी की बजाय बाजारों के ध्वज तो झुके ही रहे।

और आज

अब तो जैसे चारों ओर से सिर्फ मंदी की खबरें ही आ रही हैं। घरों की बिक्री कई वर्षों में सबसे कम है। पिछले पांच महीनों से गाड़ियों की बिक्री घट रही है। फ्रिज, टीवी आदि की बिक्री भी घट गई है। और तो और, अमेरिका में इस बार क्रिसमस और नए साल की खरीदी के दिनों में दुकानें सजी ही रहीं। कीमतों पर डिस्काउंट सेल लग गई, लेकिन बिक्री पिछले साल के बराबर ही रही है, कोई वृद्धि नहीं हुई, जबकि इसके पिछले साल कोई 10 प्रतिशत की वृद्धि थी। यहां कुछ योगदान मीडिया का भी रहा।

सामान्यतः खरीदी पसंद लोगों ने भी मंदी की आशंका वाली खबरों को पढ़कर इस साल हाथ खींच लिए कि अभी जरा रुक जाओ, जबकि अमेरिका की अर्थव्यवस्था तो सेविंग नहीं, बल्कि स्पेंडिग और लोन पर आधारित है। जनरल मोटर्स, सिअर्स, जिलेट, एटना, जेरॉक्स जैसी नामी-गिरामी कंपनियों ने हजारों की संख्या में लोगों की विदाई शुरू कर दी है और अब डॉट कॉम कंपनियों के बंद होने की खबर, खबर ही नहीं रही। 1971 में शुरू होने के बाद नास्दाक सूचकांक के लिए 2000 सबसे खराब साल था, जब वह साल के शुरू से 39 प्रतिशत कम पर बंद हुआ और डू सूचकांक भी नीचे ही रहा। आंकड़ों के अनुसार करीब 3 ट्रिलियन डॉलर पैसा मार्केट कैपिटलाइजेशन से पिछले साल साफ हो गया है (जो कि फ्रांस और जर्मनी की पूरी सालाना अर्थव्यवस्था के बराबर है, और मानो 150 बार कोई सुरसा पूरे बीएसई को निगल गई हो)। हालांकि यह भी सही है कि पिछले साल तेजी में यह कैपिटलाइजेशन बढ़ा था, यानी वी आर बैक टू बेसिक्स।

बुश के टैक्स कट या ग्रीनस्पान के इंटरेस्ट कट?

बुश ने राष्ट्रपति चुने जाते ही मंदी के संकट की बात को वजन देना शुरू कर दिया, जिसके चलते वो अपने टैक्स कट प्रोग्राम के बिल को पास करना चाहते हैं। हालांकि क्लिंटन प्रशासन अभी भी आर्थिक उन्नति और स्थिरता बरकरार रहने की बात कर रहा है। वर्तमान क्लिटंन प्रशासन और ग्रीनस्पान टैक्स कट से सदैव खिलाफ रहे हैं और इंटरेस्ट रेट की फेरबदल को ज्यादा महत्व दिया है। इतिहास तो इस बात का भी गवाह है कि बुश के पिता ने अपने दोबारा न चुने जाने का जिम्मा ग्रीनस्पान को भी दिया था कि उन्होंने तत्कालीन समय में ब्याज जल्दी कम नहीं किया था, जिससे अर्थव्यवस्था मंदी से उबर नहीं पाई थी। ग्रीनस्पान की बेचैनी देखिए कि 19 दिसंबर 2000 को फेडरल बैंक की रेगुलर मीटिंग में उन्होंने ब्याज दर बरकरार रखने का फैसला किया, लेकिन मीटिंग के सिर्फ 10 दिनों में 3 जनवरी को उन्होंने आश्चर्यजनक रूप से ब्याज दर को 0.50 प्रतिशत कम करके 6.0 प्रतिशत कर दिया। कुछ समय के लिए तो मार्केट दीवाने हो गए और सिर्फ 150 मिनट में नास्दाक 324 अंक बढ़कर इतिहास का सर्वाधिक एक दिन में 14 प्रतिशत बढ़ गया। लेकिन अगले तीन दिन में फिर मार्केट गिर ही रहा है, क्योंकि वह खुशी क्षणभंगुर थी। लेकिन रोज आ रहे कंपनियों के चौथे तिमाही के वित्तीय परिणाम आशा से कम हैं और कहें तो बहुत निराशाजनक हैं, जिनमें माइक्रोसॉफ्ट और सिस्को जैसे महारथी भी शामिल हैं, जिन्होंने कि कई वर्षों में कोई बुरी खबर नहीं सुनाई।

इंटरेस्ट रेट का इतना प्रभाव क्यों?

आखिर आप कहेंगे कि इस इंटरेस्ट रेट के फेरबदल से इतना प्रभाव क्यों? दरअसल यह इंटरेस्ट रेट बैंकों द्वारा उपभोक्ताओं से उनके क्रेडिट कार्ड्‌स, मकानों की गिरवी और व्यवसायों को दिए उधार पर ब्याज की दर तय करवाता है, जिसमें छूट से कंपनियां और व्यक्ति खुल कर खर्च कर पाते हैं। इसी 12 महीने के दौरान तेल की कीमतों ने भी अपनी मार लगाई और 12 डॉलर बैरल से बढ़कर तेल 36 डॉलर प्रति बैरल तक हो गया था और सर्दी के मौसम में अमेरिका में तेल सिर्फ आवागमन के लिए ही नहीं, बल्कि सभी घरों के तापमान को बरकरार रखने में भी काम आता है।

अब क्या?

अभी भी बेरोजगारी की दर अपने 4 प्रतिशत की न्यूनतम से बढ़ी नहीं है और मुद्रास्फीति भी काबू में है। अभी तो लोगों को नौकरी से निकाले जाने पर दूसरी नौकरी मिल ही रही है, लेकिन यह शायद 2001 में कितना बरकरार रह पाएगा, वक्त ही बताएगा। तो क्या अमेरिकन अर्थव्यवस्था वाकई धीमी हो रही है। अभी तो सारे आसार ऐसा ही बताते हैं। हालांकि ग्रोथ अभी भी है, रेट ऑफ ग्रोथ ही काफी कम हो गई है। इस सब के पीछे निष्कर्ष के कुछ बिंदु जो मुझे समझते हैं, वे इस प्रकार हैं-

निष्कर्ष

  • अमेरिका के शेयर मार्केट, विशेषकर टेक्नोलॉजी स्टॉक्स तो अभी आने वाले कुछ महीनों तक ऐसे ही झूलते रहेंगे। मार्केट कभी घट और कभी बढ़ के झूले पर झूलता रहेगा, जब तक कि आशंका के सारे बादल छंट नहीं जाते। इसका साफ मतलब है कि भारत में भी स्टॉक मार्केट में आने वाले दिनों में कोई विशेष संभावना नजर नहीं आती। विशेषकर टेक्नोलॉजी स्टॉक में कदापि लांग टर्म इनवेस्टिंग के लिए शायद यह सही समय है। लेकिन अमेरिका में कोई भी विशेषज्ञ अभी खरीदने के बजाय वेट एंड वॉच की सलाह ज्यादा दे रहे हैं।
  • ग्रीनस्पान तो आर्थिक गाड़ी को वापस पटरी पर लाने के लिए प्रतिबद्ध हैं, लेकिन उनके ब्याज दर कटौती का असर और बुश प्रशासन से तारतम्य दोनों ही अभी भविष्य में छिपे हैं। अगले तीन महीनों की हवाओं का रुख आने वाले साल के लिए काफी महत्वपूर्ण है।
  • अमेरिका से जुड़ा भारत का सॉफ्टवेयर निर्यात क्षेत्र तो थोड़ी सी टर्बुलेंस (कठिनाई) के बाद बढ़ना चाहिए, क्योंकि अपनी कीमत कम रख कर सॉफ्टवेयर का काम करवाने का यह सबसे कारगर माध्यम है। लेकिन इसमें भी वही भारतीय कंपनियां टिक पाएंगी जो गुणवत्ता पर कारगर होंगी। अन्यथा आने वाले समय का अमेरिका काफी रूथलेस (सख्त) भी हो सकता है और अमेरिका में बसे लाखों भारतीयों को, जो अपने काम में निपुण हैं, कोई परेशानी नहीं रहेगी। लेकिन सिर्फ एक लहर के रहते अमेरिका तक पहुंचे वो चंद लोग जो अपने काम में पारंगत नहीं हैं, उनकी उल्टी गिनती अब शुरू हो गई है।
  • जिस मीडिया की बदौलत इंटरनेट इतनी तेजी से फैला, उसी मीडिया की खबरों से मंदी के डर के बादल भी तुरंत चारों ओर छा गए। फिर इसी मीडिया को हालात सुधरने पर जनता में प्रशासन और अर्थव्यवस्था पर विश्वास जगाना होगा।
  • संचार, प्रचार और कार्यकुशलता के माध्यम के रूप में इंटरनेट पूरे विश्व में अब और बढ़ना ही है। शायद इतनी कंपनियों में से कई तो चलेंगी भी और ऐसा शायद हर आर्थिक क्रांति के युग में होता है, चाहे वह तेल की हो, टेलीफोन कि या मोटर गाड़ियों की। हां, सिर्फ इंटरनेट के नाम पर बिना कमाई की कोई ठोस योजना के पूरी कंपनी खड़ी करने वालों के दिन कुछ दिनों के लिए तो लद गए और अब सपने हो गए सपने डॉट कॉम।
  • खुलकर सपने बेचने का प्लान बनाकर करोड़पति बनाने के दिन यहां हैं। 30 साल बाद जब अमेरिका में पिछले तीन सालों में रह रहा कोई व्यक्ति अपने पोते- पोतियों को डॉट कॉम एरा और हॉटमेल के सबीर भाटिया और राजेश जैन की कहानी सुनाएगा तो ठंडी आह भरे बगैर नहीं रह पाएगा।
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