इराक और युद्ध के बीच सिर्फ चंद लम्हे

17 मार्च 2003

यह सही है कि सामरिक दृष्टि से अमेरिका के लिए यह लड़ाई मार्च-अप्रैल में ही लड़ना आसान है, लेकिन उसकी सेना इराक की भीषण गर्मी में भी लड़ने के लिए पूरी तरह लैस और प्रशिक्षित है। सारी योजना के बावजूद कई अहम पहलू सिर्फ वक्त ही बताएगा कि क्या सद्‌दाम 1991 की ही तरह इराक के तेल के कुओं को आग लगा देंगे, क्या वे किसी रासायनिक या जैविक हथियार का प्रयोग करेंगे (अमेरिका की सेना इसके लिए भी तैयार है और ऐसा करने से सद्‌दाम पर उनका शक सही सिद्ध हो जाएगा), क्या बगदाद और सद्‌दाम भी अफगानिस्तान की ही तरह आसानी से कुछ दिनों के हमले में काबू में आ जाएंगे और इस सबकी अमेरिका को जान और माल में क्या कीमत चुकानी होगी। (इस युद्ध में होने वाले संभावित खर्च के बारे में प्रशासन ने संसद को भी कोई ‘ऑफिशियलएस्टीमेट‘ नहीं पेश किया है) पिछले गल्फ ने सीएनएन को जन्म दिया था। इस बार तो मानो लड़ाई का ‘आंखों देखा हाल’ सारे विश्व को प्रचार तंत्र से मिलेगा।

अमेरिका के ही लगभग 500 से अधिक पत्रकार पूरे क्षेत्र में फैले हुए हैं, सैनिक कार्रवाई और उससे जुड़ी हर खबर को सारी दुनिया तक तुरंत पहुंचाने के लिए। सद्‌दाम जिंदा अमेरिका के हाथ आए या नहीं, बगदाद पर से सद्‌दाम का सालों से चल रहा शासन अब युद्ध शुरू होने के बाद ज्यादा दिन का नहीं होगा और वो भी अमेरिका चाहता है अपने सैनिकों की जान की कम से कम कीमत पर। यही नहीं, अमेरिका ने तो सद्‌दाम के बाद इराक में नए प्रशासन और इराक के पुनरुत्थान तक की रूपरेखा बना रखी है। युद्ध में ध्वस्त होने वाले सड़कों, पुलों, बिजली और जलसेवा के 900 मिलियन डॉलर के संभावित ‘टेंडर‘ के लिए अमेरिका की चुनिंदा कंपनियों से प्रशासन की चर्चा हो चुकी है।

आखिर बुश को सद्‌दाम से इतनी नफरत क्यों है?

कई अटकलें हैं इस बारे में। क्या बुश को लगता है कि उन्हें अपने पिता और भूतपूर्व राष्ट्रपति के अधूरे काम को पूरा करना है, क्या यह सिर्फ इराक के तेल पर कब्जा करने की लड़ाई है (इराक में सऊदी अरब के बाद विश्व में दूसरे नंबर के 100 बिलियन बैरल से अधिक के तेल भंडार हैं जो आज की खपत दर से अमेरिका के अगले 100 सालों के पूरे तेल आयात की पूर्ति कर सकते हैं) क्या इसी के चलते अमेरिका को तेल के कारण सामरिक रूप से महत्वपूर्ण कट्‌टरपंथी इस्लाम बहुल खाड़ी क्षेत्र में भी अपने ‘स्वामित्व का टापू‘ मिल जाएगा।

यह सभी आंशिक या पूर्ण रूप से सही हैं, लेकिन इससे भी प्रबल है जॉर्ज बुश का यह विश्वास की इराक के तानाशाह के रूप में सद्‌दाम हुसैन आतंकवाद को प्रत्यक्ष-परोक्ष बढ़ावा देते हैं, उनके पास ‘सामूहिक विनाश के हथियार‘ हैं जिनका वे कभी भी अमेरिका या उसके हितों के खिलाफ उपयोग कर सकते हैं और उसके पहले कि सद्‌दाम वार करें, अमेरिका और स्वतंत्र राष्ट्रों की सुरक्षा के लिए सद्दाम को इराक के शासन से हठाना उनका कर्तव्य ही नहीं नैतिक धर्म है। जॉर्ज बुश के ये विचार तो हमेशा थे। 11 सितंबर के बाद आतंकवाद के सर्वनाश हेतु यही उनके प्रशासन के ध्येय बन गए। ‘बुश एट वार‘ पुस्तक में पत्रकार बॉब वुडवर्ड ने साफ लिखा है कि व्हाइट हाउस के गलियारों में तो 12 सितंबर 2001 से ही आतंकवाद और अल कायदा के साथ-साथ सद्‌दाम का नाम भी जॉर्ज बुश की ‘हिट लिस्ट‘ में जुड़ गया था।

अमेरिका की अर्थव्यवस्था में भारी वित्तीय घाटे के बावजूद बुश सद्‌दाम को इराक से हटाने के लिए होने वाले विशाल खर्चे के लिए कटिबद्ध हैं। इसके बाद विश्व के इस्लामिक समाज में अमेरिका विरोधी भावना बढ़ जाएगी और उससे अमेरिका में आतंकवादी गतिविधियां बढ़ सकती हैं, बुश प्रशासन इससे पूरी तरह वाकिफ है। उनके कुछ सहयोगी चेनी-रम्सफेल्ड तो पिछले साल ही इराक पर आक्रमण को आमादा थे। यह तो विदेशमंत्री कोलिन पावेल ने संयुक्त राष्ट्र के समर्थन और उसके अनुमोदन पर पुनः ‘हथियार निरीक्षण‘ के मार्ग पर बहुत जोर डाला तभी अमेरिका ने वह रास्ता चुना लेकिन तब तक प्रशासन के ही अन्य वरिष्ठ सदस्य संयुक्त राष्ट्र के हथियार निरीक्षण की निरर्थकता पर कई बार बोल चुके थे।

इस लड़ाई में अमेरिका सारी दुनिया से अलग क्यों है?

इराक युद्ध तो शुरू होने के बाद अपनी कीमत वसूल करके अपने मुकाम तक जल्द ही पहुंच जाएगा, लेकिन इसी के पहले अमेरिका और उसके घनिष्ठ सहयोगी राष्ट्रों में भारी मतभेद, संयुक्त राष्ट्र, सुरक्षा परिषद और नाटो जैसे विश्व के जनमंच की अमेरिका द्वारा खुली अवहेलना और सद्‌दाम के कर्तव्यों से सबके वाकिफ होने के बावजूद सारी दुनिया अमेरिका के इस कदम का इतना गहरा राजनैतिक और जनविरोध क्यों? सिर्फ सालभर पहले अफगानिस्तान में हुई कार्रवाई में सारी दुनिया अमेरिका के साथ थी, वो आतंकवाद के खिलाफ सबकी सामूहिक जंग थी। फिर 12 महीनों में इतना क्या बदल गया। 1991 के खाड़ी युद्ध में युद्ध खर्च का सिर्फ 10 प्रतिशत भार अमेरिका ने वहां किया था, क्योंकि वह सद्‌दाम को कुवैत से खदेड़ने के लिए पूरे विश्व की लड़ाई थी। उसके पीछे तत्कालीन राष्ट्रपति बुश और विदेशमंत्री जेम्स बेकर की सूझबूझ थी।

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