जीवन का चरमोत्कर्ष : मेरी पहली ‘सोलो’ उड़ान
जे.आरडी. के ही शब्दों में ‘उसी दिन मुझे एक लिफाफा प्राप्त हुआ, जिसमें कपड़े के पृष्ठ वाला एक नीला कार्ड था, जिसमें स्वर्णाक्षरों में फेडरेशन ऐरोनॉटिक इंटरनेशनल ने ‘दे एरो क्लब ऑफ इंडिया एंड बर्मा‘ की ओर से मुझे ‘ऐविएटर सर्टिफिकेट‘ (पायलट लाइसेंस) नं. 1 प्रदान किया। मुझे आज तक किसी दस्तावेज ने इतनी खुशी नहीं दी है। खुशी का लुत्फ इस बात से और बढ़ गया था कि मैं भारत में पायलट की योग्यता प्राप्त करके लाइसेंस प्राप्त करने वाला पहला व्यक्ति था। कुछ वर्षों बाद मेरी बड़ी बहन, सिला, भारत में पायलट लाइसेंस प्राप्त करने वाली पहली महिला बनी और छोटी बहन, रोडाबेह, यह सम्मान प्राप्त करने वाली दूसरी महिला थी। हालांकि हम सबमें अच्छा विमान चालक मेरा छोटा भाई जमशेद (जिमी) था, जिसकी सिर्फ 21 वर्ष की अल्पायु में ही एक वायुयान दुर्घटना में असामयिक मृत्यु हो गई।’ 19 नवंबर 1929 को लंदन के ‘टाइम्स‘ अखबार में एक समाचार प्रकाशित हुआ। महामहिम आगा खान ने रॉयल एरो क्लब, लंदन के तत्वावधान में 500 पौंड का पुरस्कार घोषित किया है, जो कि ब्रिटेन से भारत अथवा भारत से ब्रिटेन की यात्रा को उड़ान मार्ग से ‘सोलो‘ उड़ान में सबसे कम समय में पूरा करने वाले विमान चालक को दिया जाएगा। पूरी दूरी उड़ान प्रारंभ होने के छह सप्ताह के अंदर तय हो जानी चाहिए।’
इस पुरस्कार को जीतने के लिए तीन प्रमुख दावेदारों ने प्रयास किए। सबसे पहले इंग्लैंड में पढ़ रहे एक सिख छात्र मनमोहनसिंह ने अपने ‘मिस इंडिया‘ नामक विमान में इंग्लैंड से भारत की यह वायुयात्रा 11 जनवरी 1930 को प्रारंभ की। मनमोहनसिंह में उत्साह तो भरपूर था, परंतु उनका विमान बार-बार मार्ग से भटक जाता था और उन्हें कई बार अजीबोगरीब स्थानों पर त्वरित ‘लैंडिंग’ करनी पड़ी। अंततः मनमोहनसिंह 10 मई को कराची (विभाजन के पहले भारत में) पहुँचे, परंतु छह सप्ताह से अधिक समय लेने के कारण उन्हें पुरस्कार के लिए दावेदार नहीं माना गया।
दूसरा एकल प्रयास कराची एरो क्लब के सदस्य 17 वर्षीय युवक एस्पी मर्विन इरानी ‘इंजीनियर‘ का था, जो 25 अप्रैल को क्रोयडन से उड़कर 11 मई को कराची पहुँचे। तीसरा प्रयास जेआरडी ने किया, जिन्होंने ड्रीग रोड, कराची से 3 मई 1930 को प्रातः 6.15 पर उड़ान भरकर आगा खाँ पुरस्कार हेतु अपनी कोशिश की शुरुआत की। इसके बाद जेआरडी की ‘लॉग बुक‘ में पश्चिम एशिया के वीरान विशाल रेगिस्तानी शहर, उत्तरी अफ्रीका, पश्चिम योरप होते हुए इंग्लैंड तक का सफर 72 घंटे 55 मिनट में पूरा करके 12 मई 1930 के मध्याह्न कोयडन, लंदन पहुंचकर तय किया। कुछ घंटों के समय अंतराल के आधार पर पुरस्कार एस्पी इंजीनियर को प्रदान किया गया। इसी आगा खां प्रतियोगिता के दौरान जेआरडी ने अपनी खिलाड़ी भावना का अप्रतिम परिचय दिया। कराची से लंदन के मार्ग में जेआरडी ने जब काहिरा (मिस्र) में अपना ‘कम्पॉस’ (दिशा सूचक यंत्र) ठीक करने हेतु पड़ाव किया, तो वहीं उनकी मुलाकात उनके प्रतिद्वंद्वी एस्पी इंजीनियर से हुई। बातचीत के दौरान एस्पी ने बताया कि स्पार्क प्लग में खराबी हो जाने के कारण उन्हें काहिरा में रुकना पड़ा। चूंकि उनके पास अतिरिक्त प्लग नहीं था, इसलिए उन्हें इंतजार करना पड़ेगा। जेआरडी ने तुरंत एस्पी को अपने 8 अतिरिक्त स्पार्क प्लग सेट में से 4 एस्पी को दे दिए। यह अटकल लगाना अनुचित नहीं होगा कि अगर एस्पी को जेआरडी स्पार्क प्लग नहीं देते, तो जेआरडी की पराजय के निर्णायक चंद घंटे शायद जीत में तब्दील हो जाते। महज आगा खां पुरस्कार के 500 पौंड से तो बहुत फर्क नहीं पड़ता, परंतु उस पुरस्कार के फलस्वरूप एस्पी इंजीनियर को भारतीय वायुसेना में प्रवेश मिल गया। उस समय तो वायुसेना अपने शैशवकाल में थी, परंतु यही एस्पी बाद में भारतीय वायुसेना के एअर चीफ मार्शल के पद तक पहुंच गए।
इसी आगा खां उड़ान के बाद जेआरडी जब वापस कराची लौटे, तो विमान से उतरते ही स्काउट की टुकड़ी ने बैंड-बाजे के साथ जेआरडी का स्वागत किया और 17 वर्षीय एस्पी इंजीनियर ने उनकी विशाल सहृदयता को सराहते हुए उन्हें एक चांदी का सिक्का भेंट किया, जिस पर अंकित था- ‘टू जेआरडी टाटा-फॉर स्पोर्ट्समैनशिप‘ (जेआरडी को खिलाड़ी भावना के लिए)।
1931 में ब्रिटेन की आर.ए.एफ. (रॉयल एअर फोर्स) के एक सेवानिवृत्त अफसर नेविल विन्टसेन्ट अपने एक सहयोगी के साथ भारतभर में विचरण कर लोगों को विमान यात्रा का अनुभव करवा रहे थे। उन्हीं दिनों इंपीरियल एयरवेज ने लंदन से कराची तक हवाई डाक लेकर आने की व्यवस्था प्रारंभ की थी। विन्टसेन्ट को यह विचार आया कि क्यों न निजी प्रयासों से कराची से आर्ग बंबई-मद्रास को भी इस हवाई डाक सेवा से जोड़ा जाए। इस हेतु उन्होंने बंबई के एक नामी व्यवसायी से बात की, परंतु उसने उनकी योजना में ज्यादा रुचि नहीं दिखाई। एक दिन नेविल विन्टसेन्ट ने इस योजना की चर्चा जे.आर.डी. से की और वे तुरंत तैयार हो गए।
डाक सेवा की रूपरेखा इस प्रकार तैयार हुई थी- प्लेन कराची से डाक लेकर अहमदाबाद होते हुए बंबई आएगा, वहां से बल्लोरी होता हुआ दूसरा प्लेन मद्रास तक जाएगा। चूंकि तब तक जे.आर.डी. टाटा घराने के व्यापार से जुड़ चुके थे, इसलिए इस योजना पर टाटा प्रमुखों की हामी जरूरी थी। पहले यह स्कीम जे.आर.डी. ने उन्हें धंधे के गुर सिखाने वाले अंग्रेज जॉन पेटरसन को दिखाई, जिन्होंने तुरंत स्वीकृति दे दी। उसके बाद यह टाटा सन्स के तत्कालीन अध्यक्ष सर दोराबजी टाटा के सामने पेश की गई। उन दिनों दोराबजी का व्यक्तिगत व टाटा घराने का व्यावसायिक, दोनों ही की नब्ज कुछ ढीली चल रही थी, इसलिए एक बार तो दोराबजी ने इस योजना में टाटा समूह के भाग लेने से इंकार कर दिया। परंतु जब उन्हें जॉन पेटरसन ने पुनः समझाया तो फिर वे मान गए। परंतु सबसे टेढ़ी खीर तो सरकार को इस योजना के लिए राजी करना था।