जीवन का चरमोत्कर्ष : मेरी पहली ‘सोलो’ उड़ान
उन्हीं दिनों जे.आर.डी. और नेविल के उत्साही दिमाग में एक विचार कौंधा। धातु के ढांचे वाले वायुयान के निर्माण में बहुत अनुभव की आवश्यकता है, किंतु काष्ठ ढांचे और दो इंजन वाले शक्तिशाली बमवर्षक विमान ‘डि-हैवीलैंड मसकीटो’ का निर्माण तो भारत में भी किया जा सकता था। मार्च 1942 में टाटा एयरक्राफ्ट लिमिटेड नामक नई कंपनी बनाई गई, जिसे अंगरेज सरकार ने भारत ही में ‘मसकीटो’ बनाने की अनुमति दे दी। विमानों के निर्माण के लिए पूना में आगा खां महल के निकट जमीन लेकर विमान बनाने का विशाल कारखाना खड़ा किया गया। जिस समय कार्य तेज गति से आगे बढ़ रहा था, उन्हीं दिनों ब्रिटिश सरकार ने अप्रत्याशित तौर पर योजना में आमूल परिवर्तन के निर्देश दे दिए। उन्होंने उस एयर क्राफ्ट के कारखाने में बमवर्षक ‘मसकीटो’ के बजाय ‘ग्लाइडर‘ बनाने का निर्देश दिया। चूंकि टाटा एयरक्राफ्ट में जमीन, संपत्ति, कारखाना आदि पर काफी खर्च हो चुका था, इसलिए भारी मन और अनिच्छा से उन्होंने ‘ग्लाइडर’ योजना मंजूर कर ली।
‘मुझे पूरा यकीन है कि अंगरेजों को डर था कि हम उनके मुकाबले में बढ़िया विमान न बनाने लग जाएं, इसीलिए हमारी उस महत्वाकांक्षी योजना को उन्होंने शुरू होने के पहले ही कुचल दिया। अगर हम ‘मसकीटो’ बनाने से शुरुआत करते तो अवश्य ही थोड़े समय बाद अन्य विमान भी भारत ही में बनना शुरू हो जाते, तब अंगरेजों के कारखानों का क्या होता?’ इसी ‘मसकीटो’ और ‘ग्लाइडर‘ के विवाद को सुलझाने के लिए नेविल अंगरेजों से बात करने इंग्लैंड गए थे। वहीं से लौटते समय उनके विमान पर दुश्मनों द्वारा हमला किया गया, और उनकी मृत्यु हो गई। नेविल की मृत्यु से जे.आर.डी. को भारी आघात पहुंचा। न सिर्फ विमान और उड़ानों के जरिये, बल्कि व्यक्तिगत तौर पर भी दोनों बहुत करीब आ गए थे। नेविल की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने ‘ग्लाइडर‘ बनाने वाली योजना पर भी प्रश्न चिह्न लगा दिया, क्योंकि ‘ग्लाइडर‘ को कारखाने से युद्धक्षेत्र तक ‘टो‘ करके ले जाने के लिए विमान उपलब्ध नहीं थे।
यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अगर 1942 से ही भारत में विमान निर्माण का कार्य प्रारंभ हो जाता तो आज इस अत्यंत परिष्कृत और सीमित क्षेत्र में भी भारत का सम्मानजनक स्थान होता। जे.आर.डी. ने वर्षों बाद हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड को अवश्य निर्माण में कुछ सुझाव दिए, परंतु 1942 में ही भारत में विमान बनाने का जे.आर.डी. का महत्वाकांक्षी स्वप्न साकार न हो सका, सपना ही रह गया। आज जे.आर.डी. टाटा घराने की औद्योगिक सफलताओं में तो अपना योगदान ‘तुच्छ‘ ही मानते हैं, परंतु विनम्रतापूर्वक स्वीकार करते हैं कि भारत में नागरिक उड्डयन के विकास में उनका योगदान अवश्य उल्लेखनीय है।
वैसे विमानों और उड़ानों से तो जे.आर.डी. का जैसे चोली-दामन का रिश्ता हो गया था। तभी तो 1982 में 78 वर्ष की आयु में भी कराची-बंबई डाक सेवा उड़ान की स्वर्णिम जयंती उड़ान के पूर्व शुभचिंतकों द्वारा ‘सोलो‘ उड़ान के लिए आनाकानी करने पर जे.आर.डी. ने कहा था ‘मैंने 1932 और 1962 दोनों ही बार यह उड़ान ‘सोलो’ ही की थी। इस बार भी उस ऐतिहासिक घटना की पुनरावृत्ति का आनंद तभी आएगा अगर मैं वह उड़ान ‘सोलो’ ही पूरी करूं। अन्यथा तो मैं महज एक यात्री बनकर भी उस मार्ग पर विमान से सफर कर सकता हूं, परंतु उसमें कोई मजा नहीं रहगा। ऐसी जयंती मनाने से तो इस बात को भूल जाना ही बेहतर है।’ अपनी इस जीवन पर्यंत ललक को समझाते हुए खुद जे.आर.डी. ने कहा है ‘मैं सदैव जोखिम भरी जिंदगी जीने के लिए तत्पर रहा हूं। शायद इस उम्र में भी मेरी स्फूर्ति और यौवन का यही रहस्य है। मनुष्य में सदैव जीवन के हर पहलू में जोखिम उठाने की क्षमता होनी चाहिए, व्यवसाय में, खेलों में, वैवाहिक जीवन में। यही जोखिम तो जीवन को नीरस होने से बचाता है।‘