क्या कुछ थम रहा है अमेरिका का आर्थिक अश्वमेध

7 जनवरी 2001

स्वर कब और कैसे बिगड़े

जब सब इतना अच्छा चल रहा था तो फिर स्वर कहां और कैसे बदले? किसी एक बॉल पर हाथ रखना तो बहुत कठिन है कि मैच यहां पलट गया, क्योंकि प्रगति ही की तरह यह भी कई अवयवों के मिले-जुले असर से होता है। काफी समय से ग्रीनस्पान ने चिंता व्यक्त की थी कि इतनी द्रुत गति से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था से महंगाई बहुत बढ़ सकती है। इसके चलते मार्च 1999 में जो ब्याज की दर 4.75 प्रतिशत पर टिकी थी उसे धीरे-धीरे जून 2000 तक ग्रीनस्पान और फेडरल रिजर्व ने 6.50 प्रतिशत तक बढ़ा दिया और विशेषज्ञों का मानना है कि इस जून की उनकी 0.50 प्रतिशत की आखिरी बाजी शायद कारगर होने की बजाय घातक सिद्ध हो गई। फिर भी अमेरिका तो मानो हिलोरे मार रहा था।

1999 की आखिरी तिमाही में यहां का जीडीपी 8.2 प्रतिशत की दर से बढ़ गया और यह कोई साधारण अर्थव्यवस्था का जीडीपी नहीं, बल्कि विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था (अमेरिका का सालाना जीडीपी 10 ट्रिलियन डॉलर यानी 470 लाख करोड़ रुपए है) की सिर्फ एक क्वार्टर (तिमाही) की ऐसी ग्रोथ रेट!

हाथी को बैठते भी समय लगता है

लेकिन ग्रीनस्पान की ब्याज बढ़ोतरी का मानो असर ही नहीं हो रहा था। 10 मार्च 2000 को तो नास्दाक अपने शीर्ष 5000 को पार कर गया। यही वो दिन है जब रोज भारतीय अखबार प्रेमजी और नारायण मूर्ति की संपदा के दिन-दर-दिन घट-बढ़ के समाचार छाप रहे थे और अमेरिका में डॉट कॉम कंपनियां सौ साल पुरानी कंपनियों से कहीं ऊंची आंकी जा रही थीं, बगैर किसी मुनाफे के। क्योंकि सभी का मानना था कि इनके ग्रोथ पोटेंशियल गुणातीत हैं, कमाई तो जीवनभर कर ही लेंगे। आज तो अपना ब्रांड स्थापित करने में पैसा फूंक दो, और पैसा भी आसानी से मिला था वेंचर कैपिटलिस्ट से, जिसके पीछे कोई मकान-दुकान गिरवी नहीं थे। इन्हीं दिनों अमेरिका में कोर्ट ने माइक्रोसॉफ्ट के बंटवारे की खबर सुनाई और बाजार अचानक लुढ़क गए। कहीं-कहीं पर सुगबुगाहट आने लगी थी कि क्या घाटे की कंपनियों के ये गगनचुंबी भाव सही हैं, पर इतने अच्छे दिवास्वप्न को कौन टूटता देखना चाहता था।

सितंबर-अक्टूबर तक तो शेयरों के भाव लगातार गिरने लगे, लेकिन सबसे पहले गाज गिरी इन्हीं डॉट कॉम कंपनियों पर, जिनमें से कई के भाव तो 100 डॉलर से सीधे 1 डॉलर पर उतर आए। डॉट कॉम कंपनियां बंद होने लगीं, लेकिन फिर भी यह अहसास बना रहा कि टेक्नोलॉजी में कार्य कर रही मूल कंपनियों जैसे सिस्को, माइक्रोसॉफ्ट, इनटेल आदि में तो सब ठीक चल रहा है और इनमें तेजी बनी रहेगी और परेशानी सिर्फ स्टॉक मार्केट तक ही तो है। अर्थव्यवस्था एकदम चुस्त-दुरुस्त है, लेकिन जो अखबार लाखों कमाने की कहानी छापते थे वो करोड़ों खोने वालों को कवर करने लगे। सब कुछ ठीक था, लेकिन फिर भी दिलों में आशंका के बादल उठने लगे थे कि क्या सब ठीक है या सिर्फ लग रहा है।

उसके बाद इस साल की तीसरी तिमाही के जीडीपी ग्रोथ रेट के आंकड़े आए, जिन्होंने चौंका दिया। दूसरे क्वार्टर की 5.6 प्रतिशत की ग्रोथ रेट तीसरे क्वार्टर में एकदम 2.2 प्रतिशत पर ही ठिठक गई। इन्हीं दिनों अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव का भी गुबार छाया रहा। पिछले 20 साल में पहली बार नवंबर में राष्ट्रपति चुनावों के वक्त भी मार्केट सोते रहे। कुछ लगा कि चुनाव से जुड़ी उलझनों से मार्केट अस्पष्टता से घबराता है, इसलिए दबा है और बुश के चुनते ही सब ठीक हो जाएगा, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ और तोप की सलामी की बजाय बाजारों के ध्वज तो झुके ही रहे।

और आज

अब तो जैसे चारों ओर से सिर्फ मंदी की खबरें ही आ रही हैं। घरों की बिक्री कई वर्षों में सबसे कम है। पिछले पांच महीनों से गाड़ियों की बिक्री घट रही है। फ्रिज, टीवी आदि की बिक्री भी घट गई है। और तो और, अमेरिका में इस बार क्रिसमस और नए साल की खरीदी के दिनों में दुकानें सजी ही रहीं। कीमतों पर डिस्काउंट सेल लग गई, लेकिन बिक्री पिछले साल के बराबर ही रही है, कोई वृद्धि नहीं हुई, जबकि इसके पिछले साल कोई 10 प्रतिशत की वृद्धि थी। यहां कुछ योगदान मीडिया का भी रहा।

टिप्पणी करें

CAPTCHA Image
Enable Google Transliteration.(To type in English, press Ctrl+g)