हर्षद मेहता-हरिदास मूंदड़ा : पंछी एक डाल के?
कुछ दिनों पहले तक, जब हर्षद मेहता का सितारा बीएसई इंडेक्स के कदम से कदम मिलाकर निरंतर बुलंदी के नए क्षितिज छू रहा था, तब हर ओर हर्षद के विवरण के लिए एक ही जुमला था- ‘न भूतो न भविष्यति‘ (न कभी पहले ऐसा हुआ, न भविष्य में होगा)। दूसरे शब्दों में, हर्षद की बिजली-सी चपल किंतु ‘जी.जी. भाई टॉवर‘ से आंखें मिलाती वित्तीय सफलता की तुलना सिर्फ एक ही व्यक्ति से की जा सकती थी, खुद हर्षद से।
कॉन-मैन या विजार्ड
परंतु जैसे ही पासे उलटे पड़ने लगे, हर्षद के सितारे धूमिल होने लगे, प्रतिभूति शेयर कांड में उनका नाम प्रमुख ‘कर्ता-धर्ता’ के रूप में उछलने लगा और उन्हें ‘फाइनेंशियल विजार्ड‘ के बजाय ‘कॉन-मैन’ कहा जाने लगा, तभी से ‘किंग-बुल‘ को ‘डिस्क्राइब‘ करने के तरीके में थोड़ा फर्क आ गया है। बदले माहौल में लोग कहने लगे हैं, ‘इस एच.एम. (हर्षद मेहता) ने तो 35 वर्षों पूर्व के एच.एम. (हरिदास मूंदड़ा) की यादें ताजा कर दी हैं। हां, तब मामला सिर्फ डेढ़ करोड़ रुपए का था और आज बात हजारों करोड़ रुपए की है।’
हरिदास-हर्षद
तुरंत एक अत्यंत स्वाभाविक-सा सवाल उभरता है कि आखिर ये हरिदास मूंदड़ा ऐसी क्या शख्सियत थी जिनकी तुलना हर्षद मेहता से की जा रही है?
चूंकि यह मामला सन् 1957-58 से संबंधित है, इसलिए आजाद भारत में जन्मे चुनिंदा नागरिकों को ही इसकी विस्तृत जानकारी होगी। हां, इतना जरूर है कि व्यापार-व्यवसाय-वाणिज्य से प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से जुड़े लोगों ने कभी न कभी तो इस नाम का जिक्र सुना ही होगा। जिनकी जानकारी सामान्य से कुछ अधिक होगी, वे यहां तक बता देंगे कि हरिदास मूंदड़ा ने एलआईसी (जीवन बीमा निगम) से शेयरों की खरीद-फरोख्त में कुछ घोटाला किया था, जिनकी जांच बंबई उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एम.सी. चागला ने की थी, जिसके परिणामस्वरूप हरिदास मूंदड़ा को जेल हो गई थी। किसी भी व्यक्ति की याददाश्त में इस घटना में विशिष्ट तौर पर दर्ज होने का प्रमुख कारण यह है कि जांच आयोग की सिफारिशों के फलस्वरूप तत्कालीन केंद्रीय वित्तमंत्री टी.टी. कृष्णमाचारी को इस्तीफा देना पड़ा था।
परंतु, इससे अधिक 35 वर्षों पुराना वह मामला किसी को ध्यान हो, ऐसे बिरले ही होंगे। वर्तमान आर्थिक परिप्रेक्ष्य के चलते ‘हरिदास मूंदड़ा कांड‘ के विस्मृत पहलुओं को उजागर करने के दो मुख्य उद्देश्य हैं। पहला और स्वाभाविक कारण तो लोगों की हरिदास मूंदड़ा से संबद्ध मामले की विस्तृत जानकारी की जिज्ञासा को यथासंभव पूरी करना है। किंतु, दूसरा और महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि उस समय किन परिस्थितियों में एक व्यक्ति ने सरकार और उसके द्वारा नियंत्रित निगम को इच्छानुसार ‘मना‘ लिया, मामला कैसे सामने आया, उसकी जांच प्रक्रिया के दौरान किन खामियों और कमजोरियों पर प्रकाश डाला गया और क्या वे सभी आवश्यक कदम उठाए गए जिससे ऐसे मामलों की पुनरावृत्ति संभव न हो। अन्य सभी सवालों का जवाब तो लेख में मिल जाएगा, किंतु अंतिम और ‘इतिहास की पुनरावृत्ति‘ के अहम सवाल का प्रश्नचिह्न अभी भी बरकरार है। वर्तमान प्रतिभूति कांड से यह तो स्पष्ट झलक रहा है कि ‘सिस्टम’ पूर्णतः दोषरहित और ‘लीक-प्रूफ’ अब भी नहीं है। अब विचारणीय पहलू यह है कि या तो हरिदास मूंदड़ा मामले के बाद भी सरकार ने प्रणाली सुधार के कारगर कदम नहीं उठाए थे, अथवा उस एच.एम. से इस एच.एम. तक के लंबे अंतराल और बदलती कार्य-शैलियों से नियंत्रण प्रणाली पिछड़ गई है।