बॉम्बे प्लान
द्वितीय विश्व युद्ध के अंतिम वर्षों तक यह साफ दिखाई देने लगा था कि अंग्रेजों के भारत पर शासन के दिन अब पूरे हो चुके थे। उन्हीं दिनों दूरदर्शी जे.आर.डी. टाटा को यह विचार सताने लगा था कि आजादी के बाद देश की प्राथमिक आवश्यकता औद्योगीकरण और आर्थिक प्रगति की रहेगी। उस जटिल समस्या से जूझने के लिए जे.आर.डी. ने वर्ष 1944 में ही देश के अग्रणी उद्योगपतियों को आमंत्रित किया, ताकि वे सभी आजादी के बाद के आर्थिक कदमों का मार्ग पहले ही से निर्धारित कर लें। जे.आर.डी. टाटा ने इस हेतु घनश्यामदास बिड़ला, कस्तूरभाई लालभाई, सर पुरुषोत्तमदास ठाकुरदास और सर श्रीराम को एक साथ विचार-विमर्श का न्यौता दिया।
जे.आर.डी. सहित इन पांच उद्योगपतियों के अलावा तीन प्रखर बुद्धिजीवी भी उस ‘थिंक टैंक‘ में शामिल हुए। वे तीनों ही टाटा घराने से संबद्ध थे- सर अरदेशी दलाल, ए.डी. श्रॉफ व डॉ. जॉन मथाई। इन आठों अनुभवी, भविष्यदृष्टा और व्यापक सोच वाले व्यक्तियों की चाह एक ही थी- आजादी के बाद भारत को आर्थिक प्रगति की राह पर प्रशस्त करना। जब उस ‘समिति’ की पहली बैठकों में तो कोई निश्चित लक्ष्य या दिशा-निर्धारण नहीं हो सका, तब जी.डी. बिड़ला ने यह सुझाव दिया कि आजादी के बाद भारत को क्या करना चाहिए, इस प्रश्न के संभावित उत्तर पर अटकलें लगाने के बजाय प्राथमिकता इस बात को दी जानी चाहिए कि आजादी के बाद हमारे नागरिकों की भोजन, रहवास, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि की जरूरतें क्या होंगी और उसी को आधार मानकर उनकी पूर्ति हेतु कार्यक्रम तैयार किया जाना चाहिए।
उसी का दूसरा नाम ‘बॉम्बे प्लान’…
अंततः जो दस्तावेज तैयार किया गया, वह उसी आधार पर था। ‘भारत के आर्थिक विकास की योजना‘ नाम से जो ऐतिहासिक दस्तावेज उस समिति ने जारी किया, उसी का दूसरा नाम ‘बॉम्बे प्लान‘ अथवा ‘टाटा-बिड़ला प्लॉन’ पड़ गया। जनवरी 1944 में सार्वजनिक तौर पर जारी इस योजना की पूरी ‘ड्राफ्टिंग’ आठ सदस्यीय समिति के एक सदस्य, डॉ. जॉन मथाई ने ही की थी।
आज पीछे मुड़कर देखें तो उस महत्वाकांक्षी योजना में उसके प्रणेताओं की विस्तृत सोच की झलक दिखाई पड़ती है। 15 वर्ष की भावी योजना को तीन पंचवर्षीय योजनाओं में विभक्त किया गया था। सभी नागरिकों के लिए पर्याप्त भोजन, रहवास, कपड़ा और मूलभूत शिक्षा को योजना के मुख्य उद्देश्य मानकर भारत के हर गांव में एक प्रशिक्षित डॉक्टर और दो नर्सों की सेवाओं का प्रावधान था। उस समय के मुद्रा मूल्य के आधार पर योजना में प्रथम पंचवार्षिकी में 1400 करोड़ रुपए, द्वितीय में 2900 करोड़ रुपए और तृतीय में 4700 करोड़ रुपए- इस प्रकार कुल 15 वर्षों के अंतराल में 10,000 करोड़ रुपए के खर्च का लक्ष्य निर्धारित किया गया था। इसी के साथ बुनियादी उद्योग, उपभोक्ता वस्तु आधारित उद्योग, कृषि, शिक्षा, रहवास और संचार माध्यमों सहित सभी मुख्य जरूरतों पर खर्च की जाने वाली राशि का विवरण था। यही नहीं, योजना में इस 10,000 करोड़ रुपए की राशि को एकत्र करने हेतु विभिन्न बाह्य एवं आंतरिक साधनों का भी जिक्र था।
हालांकि योजना के प्रारूप को तैयार करने वाली समिति के सभी सदस्यों का यह विचार था कि उस ‘प्लान’ के सफल क्रियान्वयन हेतु देश में स्वयं की राष्ट्रीय सरकार का सत्ता में होना बहुत लाभदायक रहेगा, फिर भी गरीबी-उन्मूलन और जीवन स्तर सुधार के लिए योजना के क्रियान्वयन में सरकार के स्वरूप बदलने का इंतजार करना देश के लिए अहितकारी होगा। उस योजना का एक ओर जहां ‘दूरदर्शिता और व्यापक सुझावों’ के लिए स्वागत किया गया, वहीं दूसरी ओर उसको पूंजीवादी उद्योगपतियों की एक सोची-समझी ‘चाल’ कहकर भी आलोचना की गई। वैसे योजना का सर्वाधिक विवादास्पद पक्ष था- उद्योग के लिए पचास प्रतिशत रखते हुए कृषि के क्षेत्र के लिए कुल रकम का सिर्फ दस प्रतिशत, जो कि भारत की तत्कालीन कृषि-बहुल अर्थव्यवस्था के लिए एक दिवास्वप्न-सा था।
वैसे ‘बॉम्बे प्लान‘ के प्रकाशन के कुछ ही दिनों में सर अरदेशी दलाल को वाइसराय की कार्यकारी परिषद में स्थान ग्रहण कर ‘योजना विभाग‘ के श्रीगणेश करने का सरकार द्वारा आमंत्रण मिला, जिसे उन्होंने स्वीकार किया। ‘बॉम्बे प्लान‘ का दूसरा खंड ‘विपणन-राज्यों की भूमिका’ 1944 में ही दिसंबर माह में प्रकाशित हुआ, जिसके प्रारूप को लिखने में भी डॉ. जॉन मथाई ने ही उल्लेखनीय भूमिका अदा की है। भारत में परंपरागत योजना की शुरुआत तो सन 1951-52 में पहली योजना के शुभारंभ के साथ हुई, किंतु आजादी के भी तीन वर्ष पहले तैयार किए गए ‘बॉम्बे प्लान’ के सुझाव कितने सही थे, इसका जीवंत उदाहरण तीस साल बाद भी मिलता रहा।
पांचवीं योजना के पहले योजना आयोग ने पहली चारों पंचवर्षीय योजनाओं की प्राथमिक कमजोरी पर रोशनी डालते हुए टिप्पणी की थी कि हमारे यहां योजना का पूरा ध्यान सिर्फ सकल आर्थिक उन्नति और विकास की ओर रहता है, जबकि हमारी पहली जरूरत है- विकास का आबादी के सीमित नहीं, अपितु सभी तबकों में व्यापक प्रभाव। यह आश्चर्यजनक सत्य है कि वर्षों पूर्व तैयार किए गए ‘बॉम्बे प्लान’ में इसी बात पर जोर दिया गया था कि महज अंकों और सांख्यिकी में विकास दर में वृद्धि पर संतोष धारण करने के बजाय विकास कार्यक्रमों से समाज के आर्थिक रूप से विपन्न वर्गों तक समुचित लाभ पहुंचाना ही योजना की आधारशिला होनी चाहिए। वर्तमान स्थितियों को देखकर अगर जे.आर.डी. को क्षोभ और निराशा से पीड़ा होती है तो वह जायज ही है। आखिर उन्होंने तो और कल्पनाशील राष्ट्रभक्तों के साथ मिलकर देश की समुचित प्रगति का समग्र और महत्वाकांक्षी प्रारूप हमें आजादी से पहले ही थमा दिया था; पर हमने उसकी कोई कदर नहीं जानी।