जीवन का चरमोत्कर्ष : मेरी पहली ‘सोलो’ उड़ान
कुछ वर्षों पूर्व एक पत्रकार ने जहांगीर रतनजी दादाभाई (जे.आर.डी.) से पूछ था- आपके जीवन के सबसे अनमोल क्षण कौन-से हैं? जे.आर.डी. की आंखों में चमक आ गई और उन्होंने तुरंत जवाब दिया, ‘मेरी पहली सोलो (एकल) उड़ान से ज्यादा खुशी और संतुष्टि मुझे कभी नहीं हुई।‘ जेआरडी टाटा जैसे व्यापक और बहुआयामी जीवन व्यतीत करने वाले बिरले ही होते हैं,परंतु विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े रहने के बावजूद वह क्षेत्र एक या दो ही होते हैं, जिनमें संलग्न होकर वह व्यक्ति ‘आत्मिक शांति और तृप्ति‘ की अनुभूति प्राप्त करता है। जेआरडी भी इससे विलग नहीं हैं। जो आनंद उन्हें स्वच्छंद हवा में उड़ान भरने अथवा दूधिया, बर्फीली पहाड़ियों में ‘स्कीइंग’ करने में आता है, वह अन्य किसी गतिविधि में नहीं।
वायुयान से अपने पहले परिचय के बारे में याद करते हुए जेआरडी कहते हैं, ‘बचपन में, जब मेरी उम्र 7-8 वर्षों की रही होगी, तब फ्रांस में प्रथम विश्व युद्ध के पहले मेरा वायुयानों से सरोकार हुआ था।’ वायुयान और जेआरडी के आपसी रिश्तों को अगर ‘पहली नजर में प्यार’ कहा जाए तो कदापि अतिशयोक्ति नहीं होगी। हां, सामान्य तौर पर घटने के बजाय समय के साथ-साथ यह ‘प्यार‘ बढ़कर ‘दीवानगी‘ की हद तक पहुंच गया था। जेआरडी के पिता रतनजी दादाभाई टाटा का फ्रांस में नार्मेन्डी के पास इंग्लिश चैनल के तट पर हार्डिलोट कस्बे में ‘लॉ-मस्कोट‘ नामक एक छोटा-सा ग्रीष्मकालीन निवास था। इत्तिफाक से, इंग्लिश चैनल को वायुयान से पार करने वाले सबसे पहले व्यक्ति लुई ब्लेरियट ने भी छुटि्टयां बिताने के लिए अपना एक घर वहां बनाया था। पड़ोसी होने की वजह से दोनों परिवारों के सदस्यों, खासकर बच्चों में अच्छी दोस्ती हो गई थी।
कभी-कभी ब्लेरियट के वायुयान वहीं समुद्र तट पर उतरते थे। उन्हें उड़ाने वाला ‘पायलट’ ब्लेरियट तो नहीं, बल्कि अडोल्फ पीगोड था, जिसने वायुयान से जांबाज कलाबाजियां प्रदर्शित कर सभी को हतप्रभ कर दिया था। इसी जांबाज उड़ाकू के करतबों को नियमित तौर पर देखते हुए बालक जहांगीर के मन में भी ‘प्लेन‘ में घूमने की इच्छा प्रबल होती गई। प्रथम विश्व युद्ध के बाद फ्रांस में कई ‘पायलट‘ अपने वायुयानों में नागरिकों को बैठाकर हवाई यात्रा का आनंद (जॉय-राइड) दिया करते थे। ऐसी ही एक हवाई ‘जॉय राइड‘ के लिए बालक जहांगीर ने एक बार अपने पिता से जिद पकड़ ली। बालहठ के आगे पिता आर.डी. टाटा को न चाहते हुए भी हामी भरनी पड़ी। ‘उस दिन मैं पहली बार वायुयान में बैठकर आसमान में उड़ा था। मुझे पूरा विश्वास है कि जब तक हमारा प्लेन सकुशल उतर नहीं गया, मेरे पिताजी ने सिर्फ भगवान को ही याद किया होगा। उस वक्त मैं सिर्फ 15 वर्ष का था और मेरा विचार पक्का हो चुका था- मैं पायलट (विमान चालक) बनना चाहता था।’
जिस वक्त जे.आर.डी. फ्रांस में अपनी प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त कर रहे थे, उसी समय भारत में एक दूरदर्शी व्यवसायी और समाजसेवी, सर विक्टर सेसून के प्रयासों से बंबई फ्लाइंग क्लब की शुरुआत भी हो चुकी थी। मछुआरों की बस्ती जुहू के निकट अरब महासागर के तट पर हवाई पट्टी तैयार की गई। ब्रिटिश जलसेना से जुड़े रहे पायलट ई.डी. कमिंग्स को बंबई फ्लाइंग क्लब में प्रशिक्षक नियुक्त किया गया। जिस समय जे.आर.डी. फ्रांस से भारत आए, तब तक कमिंग्स के प्रशिक्षण में कुछ इच्छुकों का विमान चालन प्रशिक्षण प्रारंभ हो चुका था।
22 जनवरी 1929 को 25 वर्षीय युवक जे.आर.डी. ने बंबई फ्लाइंग क्लब में अपनी पहली ‘पायलट लॉग बुक‘ (चालक द्वारा रखा जाने वाला उड़ान के समय, स्थान, तारीख और विशेष घटनाओं का लेखा-जोखा) प्राप्त की और उसी दिन ‘वी.टी.-ए.ए.ई.’ नामांकन वाले ‘डी-हैवीलैंड मोथ’ विमान में ई.डी. कमिंग्स ने जेआरडी को 20-30 मिनट की उड़ान के दौरान पहला पाठ सिखाया। अपनी पहली प्रशिक्षण उड़ान के बाद सिर्फ एक ही पखवाड़ा बीतते वह स्वर्णिम दिन आ गया, जो जे.आर.डी. के सिर्फ ‘ऐविएशन‘ पहलू ही नहीं, वरन् 88 बसंत के पूरे जीवन का चरमोत्कर्ष था। महज 3 घंटे 45 मिनट की युगल प्रशिक्षण उड़ानों के बाद अमेरिकन प्रशिक्षक ए.ई. एल्टन और कमिंग्स ने जे.आरडी. को अपनी पहली ‘सोलो’ (एकल) उड़ान की इजाजत दे दी।
3 फरवरी 1929, पूर्वाह्न, जुहू हवाई पट्टी के पूर्वी ‘टू-सेवन‘ छोर से ‘डी.एच. मोथ’ विमान पश्चिम की ओर मुड़कर उड़ान भरने के लिए तैयार खड़ा था। विमान में सवार एकमात्र युवक, जो कि उसका चालक भी था, ने मानसिक तौर पर अपने सभी विमान चालन के पाठों को याद किया, मंद गति से विमान को ‘रन-वे’ पर आगे बढ़ाते हुए ‘कंट्रोल-स्टिक‘ पर संचालन बनाए रखते हुए जमीन के स्पर्श से विलग होते हुए विमान को नभ-पथ पर अग्रसर कर दिया।
10 मिनट की पहली एकल उड़ान के बाद जब विमान चालक ने अपने प्रशिक्षक की ओर देखा तो उनकी आंखों से उसे संतोष दिखाई पड़ा। जेआरडी की उस 10 मिनट की संक्षिप्त ‘सोलो‘ उड़ान के दूरगामी महत्व का सबसे उपयुक्त वर्णन शायद चंद्र-विजयी नील आर्मस्ट्रांग के उस ध्रुव-वाक्य से मिला-जुला हो सकता है, ‘एक इंसान के लिए एक छोटी-सी उड़ान थी, मगर इंसानियत के लिए वह एक दूरगामी हवाई सफर था।’ अगले सात दिनों तक जेआरडी ने एकल उड़ानें भरकर अपना अनुभव व विश्वास बढ़ाया और 10 फरवरी 1929 को 45 मिनट की ‘सोलो’ उड़ान के पश्चात विमान चालक (पायलट) का लाइसेंस प्राप्त करने की पात्रता अर्जित कर ली थी।