बिल, हम दिल दे चुके सनम!

25 मार्च 2000

न पंक्तियों के लिखते समय राष्ट्रपति बिल क्लिंटन अपनी दक्षिण-एशिया यात्रा के अंतिम चरण, यानी इस्लामाबाद पहुंच चुके होंगे। कैसी रही क्लिंटन की भारत यात्रा? क्या इसे एक ‘स्वार्थभरी मैत्री‘ का हाथ बढ़ाना कहा जाए- या फिर बिल की ‘बॉडी लैंग्वेज‘ को ही उनकी असली भावना का परिचायक माना जाए। यात्रा के पहले तो चर्चा में सिर्फ दो ही पहलू थे- तैयारी और सुरक्षा का लवाजमा, जिसने पूरे भारत को गिरफ्त में ले लिया था; और ऐसी अद्‌भुत तैयारी की ‘मीडिया हाइप’ पर छींटाकशी भी की गई मानो- राष्ट्रपति क्लिंटन नहीं वरन्‌ शहंशाह-ए-आलम क्लिंटन भारत पधार रहे हों।

पर नायला के गांव में थिरकती महिलाओं से रूपेन कत्याल के पिता तक; मौर्या शेरेटन में गलीचे बेचने वाले दुकानदार से संसद के हर ‘हाथ मिला चुके‘ सांसद तक, चंद्राबाबू नायडू से लेकर अटलबिहारी तक शायद कोई भी ऐसा नहीं है जिसके दिलो-दिमाग पर बिल क्लिंटन अपनी अमिट छाप नहीं छोड़ गए हों।

बिल सारी दुनिया में मशहूर

बिल सदा से ही अपने ‘पब्लिक इंटरएक्शन‘ में बेजोड़ रहे हैं; सामने वाले हर व्यक्ति से उसी के धरातल पर बात करना, मिलना, मुस्कुराना, हाथ मिलाना, गले लगना और उनकी उन्मुक्त भाषण शैली- ये सब उनके आकर्षक व्यक्तित्व का एक अभिन्न और सशक्त अंग हैं, जिसने बिल को सारी दुनिया में मशहूर बना रखा है। लेकिन गौरतलब यह भी है कि इन सभी इंसानी हावभाव के पीछे एक राष्ट्राध्यक्ष भी दैदीप्यमान है। और न सिर्फ ‘सिटीजन क्लिंटन‘ वरन ‘प्रेसिडेंट क्लिंटन‘ भी भारत के लोकतंत्र, प्रगति, सांस्कृतिक धरोहर, प्रौद्योगिकी, सशक्त संयम को करीब से देखकर प्रभावित हुए हैं।

बिल सदा से ही अपने ‘पब्लिक इंटरएक्शन‘ में बेजोड़ रहे हैं। सामने वाले हर व्यक्ति से उसी के धरातल पर बात करना, मिलना, मुस्कुराना, हाथ मिलाना, गले लगना उनके आकर्षक व्यक्तित्व का एक अभिन्न और सशक्त अंग हैं

यह भी निर्विवाद है कि आज के बदलते सामरिक और आर्थिक परिवेश में अमेरिका को भी भारत से अच्छे संबंधों की उतनी ही जरूरत है, जितनी हमें अमेरिका की। अमेरिका के अन्य देशों से ‘रिश्ते‘ सदा से ही वर्तमान और भविष्य के परिवेश के सांचे में ढले रहते हैं। पर हमारे सामने भी तो आज यह अवसर है कि अमेरिका से ‘पोजीशन ऑफ सेन्स’ के संबंध बनाएं और बढ़ाएं, और उसका फायदा उठाएं। इस मामले में चंद्रबाबू को दाद देनी होगी जिन्होंने चंद घंटों में ही क्लिंटन और अमेरिका पर ऐसा प्रभाव छोड़ा है। चंद्रबाबू यात्रा का ‘फॉलो-अप’ भी पुरजोर होगा।

सामरिक दृष्टि से अब अमेरिका में ‘भारत-पाकिस्तान‘ कभी भी एक सांस में नहीं बोले जाएंगे। क्लिंटन सीटीबीटी के प्रवर्तक के रूप में आए जरूर थे, पर हालात को भली-भांति समझकर अपने सामने ही कश्मीर में नृशंस हत्याकांड देखकर वो भी भारत के ‘स्टांस‘ का कारण समझ गए हैं। तभी तो संसद का उनका भाषण एक सलाहकार के शब्दों में ज्यादा था, और ‘प्रेशराइजर‘ कम। क्लिंटन आज पाक में मुशर्रफ से क्या कहेंगे, और आने वाले दिनों में अमेरिका, भारत, पाकिस्तान के रुख क्या रहेंगे, अभी कहा नहीं जा सकता। पर इसके पहले क्लिंटन की भारत यात्रा को मैं तो सिर्फ अटलजी के शब्दों में ‘समराइज‘ करता हूं कि ‘हम तो आपको याद रखेंगे ही, आशा है आप भी हमें याद रखेंगे।

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