चौराहे पर खड़ी चुनाव प्रणाली
अभी कुछ ही दिनों पहले इंदौर के महापौर कैलाश विजयवर्गीय न्यूयॉर्क आए थे। हम उन्हें यहां की आधुनिक सड़क, यातायात, बिजली, सब-वे, सफाई आदि व्यवस्था बता रहे थे कि कैलाश बोल पड़े, इतनी अच्छी व्यवस्थाओं के बीच यहां की चुनाव व्यवस्था इतनी गड़बड़ क्यों है? हिन्दुस्तान में तो लाखों वोट हाथ से 24-36 घंटे में गिन लिए जाते हैं, बगैर सोने, खाने, पीने के लिए रुके। इस बार के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव ने वाकई यह सवाल अनुत्तरित छोड़ दिया है कि व्यवस्था के पर्याय देश में इतनी कमजोर व्यवस्था? यहां की राष्ट्रपति चुनाव प्रणाली के मूल में है कि एक राज्य के विजेता को उस राज्य में बहुमत प्राप्त कर लेने पर राज्य के सभी इलेक्टोरल कॉलेज वोट प्राप्त माने जाएंगे। ऐसा इसलिए कि इस विशाल देश की लगभग 75 प्रतिशत आबादी पूर्व और पश्चिम के 15 राज्यों में है, इसलिए उम्मीदवार सारे देश की ओर ध्यान दे।
200 वर्ष पूर्व ये प्रणाली बनाई गई, जिसके तहत आबादी में कम राज्यों को अधिक इलेक्टोरल वोट दिए। उदाहरण के तौर पर न्यूयॉर्क राज्य में अगर एक करोड़ मतदाता पर 32 वोट हैं (यानी लगभग तीन लाख मतदाता पर एक इलेक्टोरल कॉलेज सीट), तो किसी छोटे राज्य में शायद एक लाख मतदाता पर ही एक इलेक्टोरल कॉलेज वोट हो सकता है। और इस बार के चुनाव में भी यही हुआ। बुश ने जीते 38 राज्य, गोर ने सिर्फ एक दर्जन और इलेक्टोरल वोट, दोनों के लगभग बराबर।
इतिहास में इस चुनाव को मिलाकर चार बार इलेक्टोरल वोट से राष्ट्रपति तो कोई और बना और जनमत के वोट अधिक मिले किसी और को, क्या ये सही है? ये तो रही एक समस्या। दूसरी समस्या है वोट डालने की प्रणाली और वोटों की गिनती की, इसमें कोई मानक नहीं। हर काउंटी ने अपनी इच्छा से मत पत्र छपवाए और भिन्न-भिन्न प्रकार से वोटिंग हुई, ये बड़ा आश्चर्यजनक लगा और यहां कोई निष्पक्ष चीफ इलेक्शन कमिश्नर जैसा विभाग भी नजर नहीं आया जो इस सारी प्रक्रिया का निर्णायक हो, तभी तो बात सीधे अदालतों में पहुंच गई। सिस्टम तो पहले से यही चला आ रहा है, इस बार मुकाबला बिलकुल सूई की नोक के बराबर था तो हर खामी उभरकर आ गई। अमेरिका को जैसा मैं समझ पाया हूं, यहां पर अगर किसी प्रणाली में त्रुटि नजर आ जाए, तो यहां के लोग उसका पूरा तोड़ निकाल लेंगे, बशर्ते उनका ध्यान उस ओर जाए। पिछले 36 दिनों में देश की इतनी बदनामी हुई है कि अमेरिकावासी उसका हल जरूर निकालेंगे, पर कांग्रेस में चुनाव प्रणाली में परिवर्तन का बिल पास कराना मुश्किल ही रहेगा।