अमृतसर से लौटकर

13 अक्टूबर 1988

यूं शहर में भय, आतंक और डर नामक कोई चीज सर्वव्याप्त हो, यह धारणा पूर्णतः निराधार है। हां, शाम ढलने के साथ ही शहर में जैसे कर्फ्यू-सा लग जाता है। सिनेमा हॉल 10 बजे बंद हो जाते हैं। 9 बजे बाद तो सड़कें एकदम सुनसान हो जाती हैं। नजर आती हैं सिर्फ गश्त पार्टियां और पुलिस के लगभग हर चौराहे पर बने ‘पिल बॉक्स’। अमृतसर में पुलिस डंडा या लाठी लिए कम ही नजर आती है। बस हर पांच मिनटों में एक ‘मारुति जिप्सी’ में 6-7 सशस्त्र सुरक्षा गार्ड गश्त लगाते हुए हर जगह दिखाई पड़ जाते हैं। वैसे भी अमृतसर में तो जैसे ‘मारुति’ का मेला-सा लगा हुआ है। कुल चार पहिया वाहन बनाम मारुति की स्पर्धा में अमृतसर का नाम राष्ट्रीय क्रम के शीर्ष पर हो तो कोई आश्चर्य नहीं।

उपद्रवी गतिविधियों से सर्वाधिक प्रभावित हैं तो वहां का व्यापारी वर्ग। अमृतसर सदैव से ही क्रय-विक्रय का प्रमुख क्षेत्र रहा है, परंतु जब अन्य प्रांतों से व्यापारियों का आवागमन कम हो गया है तो यह स्वाभाविक है कि व्यवसाय पर विपरीत प्रभाव जरूर पड़ेगा। साधारणतः दुकानों, बाजारों से जुड़ी ग्राहकों की भीड़ और दुकानदारों की हलचल और स्फूर्ति वहां काफी हद तक नदारद है। अगर पूर्णतः बरकरार है तो उस शहर का अच्छे खाद्य पदार्थों और भोजन से रिश्ता। वहां के ढाबे और मिठाई वाले सदैव की तरह ही ‘हाउस फुल‘ रहते हैं। अमृतसर में खाने की ‘क्वालिटी‘ किसी भी कीमत पर शहीद नहीं होती है और यह सिलसिला कुछ अर्से से नहीं, वरन सालों से चला आ रहा है। सब इसी आशा में हैं कि हालात पूर्णतः सामान्य हो जाएं, शहर के अंतर में दबा सहमापन हमेशा के लिए विदा हो जाए और लौट आए वही आनंद, वही उल्लास। लौट आए स्वर्ण मंदिर में दर्शनार्थियों की अपार भीड़ और ‘केशर द ढाबा‘ के बाहर रात को दो बजे हलुवा प्रेमियों का सैलाब। उसी सब का बेसब्री से इंतजार है अमृतसर शहरवासियों को, सारे देश को।

टिप्पणी करें

CAPTCHA Image
Enable Google Transliteration.(To type in English, press Ctrl+g)