100 डेज़ आफ्टर आईसी-814

17 अप्रैल 2000

100 डेज़ आफ्टर आईसी 814 पिछली शताब्दी जाते-जाते भारत और भारतवासियों को एक अजीब-सी बेबसी में छोड़ गई थी। आईसी-814 में 5 हाईजैकर्स की बंदूक के बल पर 173 घंटे तक न सिर्फ जहाज में यात्री बैठे रहे, वरन पूरा देश बंदूक की नोक पर था। और फिर यात्रियों की रिहाई के बदले तीन दुर्दांत आतंकवादियों को छोड़ना। याद करके ही मन बोझ से भारी हो जाता है। लेकिन ज्यादा अहम सवाल है कि क्या हम अगले किसी आईसी-814 को अपहृत होने से रोकने में पूर्णतः सक्षम हो गए हैं? या दुर्भाग्यवश आईसी-814 जैसे अपहरण से निपटने की हमने कोई तैयारी कर ली है? इस सवाल का जवाब तो वक्त ही देगा।

पर आईसी-814 की दास्तान को हादसे के 100 दिनों बाद एसोसिएटेड प्रेस के दिल्ली संवाददाता नीलेश मिश्रा ने अपनी किताब ‘173 अवर्स इन कैप्टिविटी : द हाईजैकिंग ऑफ आईसी-814‘ में बहुत ही करीब से पेश किया है। नीलेश मिश्रा ने इस किताब का आधार आईसी-814 के यात्रियों और चालक दल से अपने इंटरव्यू और अपने अन्य विश्वस्त सूत्रों के बयानों पर तैयार किया है।

अपहरण होने के 40 मिनट बाद तक प्रधानमंत्री वाजपेयी को इसकी खबर नहीं दी गई

किताब बहुत ही ‘फास्ट पेस्ड‘ है और अगर सिर्फ एक फिक्शन होती तो बहुत अच्छी लगती, लेकिन विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की 173 घंटों के चीफ, बर्गर, भोला, शंकर और डॉक्टर के आगे बेबसी की यह दास्तान काफी कुछ दर्दनाक और विचारोत्तेजक है। आईसी-814 के दिनों में मीडिया में काफी कुछ प्रकाशित हो ही चुका था, पर कुछ खास बातें हैं जो शायद इस किताब में ही पढ़ने को मिली हैं। अपहरण होने के 40 मिनट बाद तक प्रधानमंत्री वाजपेयी को इसकी खबर नहीं दी गई, जबकि वे भी उस वक्त बिहार से वायुसेना के एक विमान से लौट रहे थे और कैप्टन शरण के संदेश एक ओपन फ्रिक्वेंसी पर आ रहे थे। सीएमजी- आपात प्रबंधन समिति के पास ऐसी आपात परिस्थिति से निपटने का कोई तैयार प्लान नहीं था। अमृतसर में लगभग 50 मिनट विमान खड़े रहने के बावजूद हम कुछ नहीं कर पाए और वहां पर कैप्टन शरण की थोड़ी ‘पैनिक और इम्मेच्योरिटी’ भी नजर आई, जब अपहरणकर्ताओं की धमकियों को उन्होंने सब सच मानकर एटीसी को जैसे संदेश दिए, उससे लगा प्लेन में जैसे नरसंहार शुरू हो गया था। और सबसे खास कि किस्सा खत्म होने और यात्रियों के भारत लौटने के बाद अपहरणकर्ता पुनः कंधार में खड़े प्लेन के पास गए थे। उसमें से कुछ सामान निकाला और 31 दिसंबर की रात वहीं कंधार एयरपोर्ट पर गुजारी।

वाकया तो अब इतिहास की धरोहर है पर हमारी ‘शॉर्ट पब्लिक मेमोरी‘ का परिचायक तो रूपेन कत्याल के पिता का वह कथन था, जो बिल क्लिंटन से मिलने के बाद उन्होंने दिया था कि हादसे के बाद किसी नेता ने उनके घर में झांका भी नहीं और क्लिंटन भारत के मंत्रियों से कहीं ज्यादा चिंतित (कंन्सर्ड) थे उनके परिवार के बारे में। आईसी-814 और मौलाना मसूद अजहर वो काला पन्ना है, जिसकी याद हमें हमेशा ‘तैयार‘ रखेगी कि लोकतंत्र और देश अपने आप सुरक्षित नहीं रहते। वरना फिर किसी रूपेन कत्याल की जान दांव पर लग सकती है।

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