समय की पाबंदी
भारत में नागरिक उड्डयन के जनक जे.आर.डी. टाटा के अनुसार एक अच्छी विमान सेवा की सबसे पहली पहचान है- समय की पाबंदी। अगर अन्य साधनों से अधिक पैसा खर्च करके भी यात्री समय पर अपने गंतव्य तक नहीं पहुंच सकते तो फिर वायुसेवा का क्या औचित्य रह जाता है?
नागरिक उड्डयन निदेशालय द्वारा 1933-34 में जारी रिपोर्ट में टाटा एअर लाइंस के कार्यकलापों का वर्णन कुछ इस प्रकार था। ‘हवाई डाक सेवा के आदर्श संचालन के लिए एक मिसाल के रूप में हम टाटा एअर लाइंस की सेवाओं की प्रशंसा करते हैं, जिन्होंने 10 अक्टूबर 1933 को सदा की तरह समय पर कराची पहुंचकर कामकाज का एक वर्ष सौ फीसदी समय की पाबंदी का पालन करते हुए पूर्ण किया है। प्रकृति की विषम परिस्थितियों-आंधी, तूफान, मूसलधार वर्षा में जब पश्चिमी घाटों के ऊपर हवाई उड़ान अत्यंत दुष्कर और
जोखिमभरा कार्य था, उन हालातों के बावजूद एक बार भी बंबई से मद्रास डाक पहुंचने में देर नहीं हुई। लेटलतीफ इंपीरियल एयरवेज को अपने कर्मचारियों को समय की पाबंदी सीखने के लिए टाटा एअर लाइंस ‘डेपुटेशन’ पर भेजना चाहिए।’
पचास के दशक में एक बार जिनेवा में एक स्विस नागरिक ने दूसरे से पूछा, ‘भाई, इस वक्त क्या बजा है?’ दूसरे ने तुरंत खिड़की से बाहर झांकते हुए कहा, ‘ठीक 11 बजे हैं।‘ पहले ने पूछा, ‘पर आपने घड़ी तो देखी ही नहीं।’ दूसरे बोला, ‘एअर इंडिया का विमान अभी-अभी उतरा है, इसलिए ठीक 11 ही बजे हैं।’ और वर्तमान में भारत की नागरिक विमान सेवाओं की ‘समय की पाबंदी’ के शब्दों में, ‘आजकल तो भारत में कई बार विमान गंतव्य पर पहुंचने के उनके निर्धारित समय तक तो ‘टेक-ऑफ‘ ही नहीं करते हैं। जब उड़ान ही नहीं भरी तो फिर पहुंचने के समय का क्या ठिकाना?’