शमा जलाए रखना
अंग्रेजी में एक बहुत प्रचलित कहावत का हिंदी में अनुवाद कुछ इस प्रकार है- जब मनुष्य का पैसा चला जाता है, तो समझो कि कुछ नहीं गया। अगर स्वास्थ्य खराब हो जाता तो समझना चाहिए कि थोड़ा कुछ खो गया और अगर चरित्र की पवित्रता चली जाए, तो बस सब कुछ ही चला गया। मगर वर्तमान काल में तो पूरी तरह इस कहावत का उल्टा ही हो रहा है जिसके पास पैसा है, उसके पास सब कुछ है और जिसके पास सिर्फ चरित्र है, उसके पास आधुनिक वातावरण के हिसाब से कुछ भी नहीं है।
इस परिवर्तन ने तो समाज में प्रचलित सर्वमान्य आदर्शों की नींव तक घात कर दिया है। और अगर आज हम इस परिवर्तन के मार्ग का पुनरावलोकन करें, तो हमें कुछ दिखाई नहीं देगा। धीरे-धीरे यह जहर पूरे राष्ट्र में इतना गहरा फैल चुका है कि उसे साफ करना तो दूर, खुद को बचा पाना ही मुश्किल है।
सिर्फ भारत के संदर्भ में ही विचार करें तो आज से सिर्फ चालीस वर्ष पूर्व इतिहास के पन्ने ऐसे हजारों नामों से गौरवान्वित थे, जिन्होंने आदर्श व चरित्र के सामने जीवन को भी तुच्छ समझा। स्वतंत्रता संग्राम आखिर था ही अपने आदर्शों व मानवीय अधिकारों की रक्षा के लिए। अगर कुछ प्रतिशत नागरिकों को छोड़ दें तो ज्यादातर जनता को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि राजगद्दी पर कौन विराजमान है- भारतीय या विदेशी? परंतु जीवन की भौतिक सुख-समृद्धि व आराम से बढ़कर कुछ है, कम से कम उस समय तो यह मान्यता थी। यह बात नहीं है कि तब हर व्यक्ति सच्चरित्र व सत्यवान था, पर अब अनुपात बिलकुल बदल गया है। और आज जो व्यक्ति अपने मूल्यों की श्रद्धा करना चाहता है, वह तो पूर्णतः तिरस्कृत समझा जाता है।
यह ट्रांसिशन (संक्रमण) किस सत्ता काल में आया, इसका अंदाज लगाना तो बहुत मुश्किल है लेकिन भ्रष्ट आचरण का युग अपने शैशवकाल से यौवन की दहलीज पर कदम रख चुका है। भ्रष्टाचार सिर्फ टैक्स चुराने या लाखों-करोड़ों के गबन का ही नाम नहीं है। भ्रष्टाचार तो ट्रेन में अधिकारी को ‘ऊपर’ से रुपए देकर टिकट लेना व सिनेमा हॉल में ब्लैक से खरीदना इनका भी नाम है। चोरी एक रुपए की हो या दस रुपए की, वह चोरी ही रहती है। ऐसी बात नहीं है कि सभी इस श्रेणी में आते हैं। जन्म से तो घूस लेना या देना कोई नहीं सीखता। व्यवहार व भ्रष्टाचार के बीच की रेखा अब अत्यंत संकुचित हो गई है। बचपन से हर मोड़ पर इस आचरण को देखकर बालक इसे जीवन का आवश्यक अंग समझते हैं। और शिक्षा प्रणाली भी कितनी खोखली है। जब शिक्षक सदाचार व चरित्र गुण का पाठ पढ़ाए और खुद भ्रष्ट हो तो छात्रों पर प्रभाव कैसे पड़ सकता है? भ्रष्टाचार की मदद न लेने वालों को अत्यंत पुरातन करार दिया जाता है और प्रगति की अंधी दौड़ में चरित्र रूपी चक्षुओं की कोई पूछ नहीं है।
सदैव मूल्यों का पालन करने के लिए शरीर व मन, दोनों ही अत्यंत कठोर होना चाहिए। शरीर इसलिए कि मूल्यों के पालन में बाधक व भ्रष्टाचार का प्रवर्तक शरीर को सुखों की चाह ही है। और मन की शक्ति इसलिए ताकि दृढ़ प्रतिज्ञ होकर हर मुश्किल का सामना कर सकें। हर मनुष्य की आत्मा उसे ऐसे कृत्य करने से टोकती है, पर आत्मा की आवाज नजर अंदाज हो जाती है। कई मनुष्य इसलिए दुर्गम मार्ग को छोड़ देते हैं, क्योंकि उन्हें अकेले पड़ जाने का भय रहता है। कोई भी परिवर्तन अत्यंत सुगमता से परिपूर्ण नहीं होता है। यह बात नीति व तौर-तरीकों के लिए भी लागू होती है। अपने अंदर मौजूद इंसान व समानता की लौ को बुझाने का हमें कोई अधिकार नहीं है। सिर्फ शारीरिक दुःख-सुख का मापदंड तो उचित नहीं है। अपने आदर्शों पर ‘एकला चलो रे’ वाले सिद्धांत का पालन करने वालों को ही दीर्घ सफर में सहायक मिलते हैं। भारत की प्राचीन गरिमा का मुख्य स्रोत यही था। अगर आज भारतवासी चाहें कि हम भौतिकवाद से विश्व में अग्रगण्य के रूप में उभर सकें तो यह संभव नहीं है। इस देश ने तो सदैव आध्यात्म गुरु के रूप में जगत का मार्गदर्शन किया है। युवा पीढ़ी को चाहिए कि अतीत की इस गौरव गाथा का अध्यापन पुनः गाया जा सके-आदर्शों से व मूल्यों से देश की नींव को सुदृढ़ बनाएं।