इस धूल को तरसते हैं हम !

1 दिसम्बर 1999

इस धूल को तरसते हैं हम ! धुआं उगलते टेम्पो, सड़क के नाम पर सिर्फ एक रास्ता, गड्‌ढों और ‘दचकों’ भरा सफर (यानी सफर तय करना हो हिंदी में लेकिन यात्रा के अंत तक सफर हो अंग्रेजी का)। इंदौर और मध्यप्रदेश के क्या हाल हो गए हैं। ‘सड़क‘ तो जैसे भूगोल की किताब में मीलों तय करने के बजाय सीधे इतिहास की किताबों के पन्ने में खंडहरों की तरह दफन हो गई है। अभी तक तो सिर्फ दोपहिया वाहन चालक ही मुंह पर अंतरिक्षमय, जैन साधुसम कुछ लगा कर रखते थे, परंतु यहां तो मैंने पलासिया चौराहे पर ट्रैफिक पुलिस मैन को भी वह पहने हुए देखा। तो अब जनता ही नहीं, वरन्‌ प्रशासन के अंग भी इसे अपनी नियति मानकर स्वीकार कर चुके हैं। और तो और, अपने मित्र जे.पी. से मिला, पांच मिनट की मुलाकात में ढेरों बार खांसी। पूछने पर हताश होकर बोला, ये तो यार अब इंदौर में रहने वाले हर व्यक्ति, जो स्कूटर-साइकिल पर घूमता हो, उसको होना तय है।

सिर्फ दो ही इलाज हैं। या तो दिनभर ऑफिस के बाहर निकलो नहीं या फिर सिर्फ एयरकंडीशंड गाड़ी में घूमो, अमूमन यह नामुमकिन है। यह तो रहा रहवासी होने के दुःख-दर्द का नजारा। वहीं अमेरिका के ‘स्वस्थ‘ माहौल से आते ही परिवार सहित शादी के चल समारोह में मैं जब शरीक हुआ, तो बरात और घोड़ी और ‘राष्ट्रीय नौशाद‘ बैंड के साथ-साथ ‘थिरकने’ का भी अवसर प्राप्त हुआ- ‘मेरे देश की धरती सोना उगले’, ‘होहोऽऽ….निंबुड़ा निंबुड़ा‘ और फिर तोरण द्वार पर बजने वाला वो गीत, जिसका कॉपीराइट पूरे भारत के हर बैण्ड के पास है- ‘बहारों फूल बरसाओ‘- इन धुनों को सुन कर जो दिल को ठंडक पहुंचती है, उसका अंदाजा सिर्फ अनिवासी ही लगा सकते हैं, जिन्हें ये बैंड, बरात, घोड़ी नसीब ही नहीं होते।

न्यूयॉर्क में महीने में सिर्फ एक बार औपचारिकतावश जूते साफ करने की आदत से मेरे मुंह से अनायास ही निकल गया। जीजाजी शायद समझ नहीं पाएंगे। पर ‘इस धूल को कितना तरसते हैं हम।’

इस धूल को कितना तरसते हैं हम !

अपने भाई, जीजी-जीजाजी के साथ बरात चलने के पहले आधा-पौन घंटा ‘डांस’ और ‘फुगड़ी‘ करने के बाद जब औरों की तरह मैंने भी अपने जूतों को देखा, जो श्यामवर्ण होकर भी धूल-मिट्टी की परत से श्वेतमय हो चले थे तो अनायास ही दूसरों के मुंह से निकल पड़ा ‘उफ‘ कितनी धूल उड़ती है यहां पर, जूते की पॉलिश खराब हो गई। वहीं न्यूयॉर्क में महीने में सिर्फ एक बार औपचारिकतावश जूते साफ करने की आदत से मेरे मुंह से अनायास ही निकल गया। जीजाजी शायद समझ नहीं पाएंगे। पर ‘इस धूल को कितना तरसते हैं हम।

ये वो धूल-मिट्टी है, जिसने अमेरिका में साफ मोजे-जूते पहनने वाले मेरे पांवों से पिछले साल सीधे न्यूयॉर्क के प्लेन से उतरकर ब्रज-वृंदावन में पांच-सात कोस की गिरिराज परिक्रमा लगवा दी, जबकि पूरा मार्ग कंकड़, कीचड़, गोबर और धूल-मिट्टी से सराबोर था। एक नजर में वही धूल-मिट्टी है जो पांव में छाले और फेफड़े में दमा कर देती है और दूसरी नजर में वही ब्रज रज और मातृभूमि की मिट्टी आस्था और श्रद्धाभरे पांवों को कोमल मरहम-सा सहला देती है। शायद फर्क इसीलिए है कि ‘इस धूल को बहुत तरसते हैं हम।‘ सहस्राब्दी की ढलान पर खड़े हुए कभी-कभी डर भी लगता है कि कहीं यह मिट्टी गरीबी और गड़बड़ी की ‘गर्द‘ में न बदल जाए। वैसे, अपने राग और रस को बरकरार रख पाए तो इस ‘रज‘ को, सारी दुनिया को अपने बस में करने की अद्‌भुत क्षमता है। तभी तो हम जैसे गृहविरही अनिवासी पुलक और श्रद्धा से यह कह पाते हैं कि ‘इस धूल को बहुत तरसते हैं हम!

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