नरों’ में वाकई ‘नारायण’ हैं वे!!

24 सितम्बर 2000

नरों' में वाकई 'नारायण' हैं वे!! 1990 में लगभग 8-9 वर्षों के कठोर परिश्रम और धैर्य के बाद भी जब इन्फोसिस की प्रगति का हमें कोई मार्ग नहीं दिख रहा था, तो एक दिन हताश होकर मेरे सभी सहयोगियों ने निर्णय लिया कि हमें इन्फोसिस बेच देनी चाहिए। मुझे लगा कि अब तो कुछ करना पड़ेगा।

मेरे बैंक खाते में चंद हजार रुपए थे, लेकिन मैंने तुरंत कहा कि मैं कुछ करोड़ रुपए में पूरे इन्फोसिस को खरीदने को तैयार हूं। यह सुनकर सभी साथी स्तब्ध रह गए। तो क्या मुझे इन्फोसिस में आगे इतना भविष्य लगता है? उन्होंने एक स्वर में पूछा! मैंने कहा अवश्य, निस्संदेह!! बस, फिर क्या था, वे सब फिर से उत्साहित हो गए। उस दिन हम सब ने निर्णय लिया कि आज के बाद कभी भी किसी भी परिस्थिति में अपना जोश कम नहीं होने देंगे, चाहे कैसा भी वक्त आ जाए!!’ ये उद्‌गार थे सारे विश्व में भारतीय सॉफ्टवेयर उधोग के प्रतिबिंब और इन्फोसिस के सहसंस्थापक एन.आर. नारायण मूर्ति के, जो उन्होंने न्यूयॉर्क में सॉफ्टवेयर समुदाय के चुनिंदा भारतीय लोगों के सामने व्यक्त किए।

एक अरबपति होने के बावजूद भी मूर्ति इतने सरल, सुसंस्कृत और सादगी पसंद लगे कि देखकर कोई भी प्रभावित हुए बगैर नहीं रह सकता और शायद यह इन्फोसिस के सभी संस्थापकों की पहचान है

नारायण मूर्ति ‘भारत रत्न’

जिस वक्त नारायण मूर्ति ने किसी से चर्चा करते हुए इतने सहज रूप से हॉल में प्रवेश किया, मुझे तो यकीन ही नहीं हुआ कि यह वो शख्सियत है जो सही मायनों में एक ‘भारत रत्न‘ है। आज सारे विश्व में भारतीय सॉफ्टवेयर व्यवसाय और उसके लोगों की जो धूम है, उसकी श्रेय का सेहरा सर्वाधिक इसी विनम्र व्यक्ति के सिर पर बंधता है।

अपनी और इन्फोसिस की कहानी को ‘फ्रॉम दलाल स्ट्रीट टू वाल स्ट्रीट‘ शीर्षक के तहत सुनाते हुए नारायण मूर्ति ने कहा कि सच्चे ‘लीडर‘ का कर्तव्य है कि वह सदैव अपने साथियों का मनोबल और ऊंचा करे और उन्हें बढ़ावा दे, यही सफलता का राज है। इन्फोसिस के सहसंस्थापकों के बारे में बोलते हुए उन्होंने कहा कि 1980 में वे (नारायण मूर्ति), नंदन निलेकानी, राघवन तथा गोपालकृष्ण सभी पाटनी कम्प्यूटर सिस्टम्स में साथ में काम करते थे। नारायण मूर्ति के नौकरी छोड़ने पर सभी ने उनके साथ चलने का फैसला कर लिया। सभी साथियों को सॉफ्टवेयर की समझ के अलावा अलग-अलग क्षेत्रों में महारथ है, इससे कंपनी चलने में मदद होती है। इंफोसिस शुरू तो 1981 में हुई थी, लेकिन उसका पहला पब्लिक इश्यू 1993 में आया था, क्योंकि शुरू के दिनों में इन्फोसिस में एक कम्प्यूटर आयात करने के लिए उन्हें पूरे दो वर्ष लगे थे और एक टेलीफोन कनेक्शन लेने में पूरे 12 महीने।

एक अरबपति होने के बावजूद भी मूर्ति इतने सरल, सुसंस्कृत और सादगी पसंद लगे कि देखकर कोई भी प्रभावित हुए बगैर नहीं रह सकता और शायद यह इन्फोसिस के सभी संस्थापकों की पहचान है। मूर्ति ने कहा कि इन्फोसिस में आज लगभग 500 अर्जियों में से औसतन 8 लोगों को चुना जाता है। इन्फोसिस व्यक्ति की सॉफ्टवेयर लिखने की काबिलियत की बजाय यह जानने में उत्सुक होती है कि उसका ‘एप्टीट्‌यूड‘ और उसमें कुछ नया सीखने की ललक कैसी है। यदि यह मौजूद है तो सॉफ्टवेयर लिखना तो सिखाया जा सकता है।

इन्फोसिस से बेहतर कंपनी बन सकती है?

भारत के सॉफ्टवेयर उद्योग के बारे में उन्होंने कहा कि अभी भारत में निर्यात देश के पूरे जीडीपी का मात्र 9 प्रतिशत है, इसे हमें 25 प्रतिशत तक ले जाने का प्रयास करना चाहिए, इसलिए अभी तो बहुत संभावनाएं हैं। इन्फोसिस में सहकर्मियों की उन्नति का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि आज उनका ड्रायवर भी करोड़पति है, उसके भी पास खुद की अच्छी गाड़ी है। इन्फोसिस में हर व्यक्ति कंपनी में शेयरहोल्डर है और कंपनी की प्रगति में सहभागी है। भारत की सॉफ्टवेयर कंपनियों के लिए सर्विसेस को प्रोडक्ट्‌स से ज्यादा कारगर बताते हुए मूर्ति ने कहा कि हमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों से घबराने की बजाय उनसे सीखना चाहिए, तभी हम उनसे टकरा सकते हैं।

अपने उद्‌बोधन के बाद उन्होंने ढेरों सवालों के जवाब दिए। दोबारा एक इन्फोसिस कैसे बन सकती है के सवाल के जवाब में मूर्ति ने कहा कि इन्फोसिस जैसी प्रगतिशील कंपनियां सदैव अपने बिजनेस के ‘एण्ट्री बैरियर‘ बढ़ाती रहती हैं, उन्हें उनके तरीके से खेलकर हराना मुश्किल है। उन्होंने कहा कि लेकिन कोई व्यक्ति किसी अभूतपूर्व ‘आइडिया‘ को लेकर अनूठे ढंग से कंपनी शुरू करे तो कोई भी कंपनी इन्फोसिस से बेहतर कंपनी बन सकती है और भारत का उत्थान तभी होगा जब सैकड़ों इन्फोसिस भारत में फल-फूल रही हों!!

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