एलेक पद्मसी की ‘डबल लाइफ’
भारत में विज्ञापन की दुनिया के बेताज सरताज एलेक पद्मसी को पिछले दिनों भारत सरकार ने पद्मश्री से सम्मानित किया। ठीक उसके बाद मुंबई के विज्ञापन जगत में चर्चित ‘ऐबी’ अवॉर्ड्ज में एलेक पद्मसी को भारत का ‘एडवरटाइजिंग मैन आफ द सेंचुरी‘ के अलंकरण से पुरस्कृत किया गया। आखिर क्या शख्सियत हैं एलेक, जिनके साथ न जाने कितने तमगे, किस्से और उपनाम जुड़े हैं?
काफी लंबे समय तक भारत की सबसे बड़ी एड एजेंसी ‘लिंटास‘ इंडिया में कर्ताधर्ता तीन महिलाओं के जीवनसाथी रह चुके, जिसमें वर्तमान पत्नी पॉप स्टार शेरॉन प्रभाकर भी हैं, थियेटर (नाटक-रंगमंच) की दुनिया में भी विज्ञापन जितना ही बड़ा नाम और काम, सर्फ की ललिताजी, लिरिल गर्ल और कामसूत्र जैसे अत्यंत मशहूर तथा सफल विज्ञापनों के प्रणेता और कुछ समय पहले बने चंद्रबाबू नायडू के सलाहकार- आइए आपकी मुलाकात करवाते हैं एलेक पद्मसी से जो आधारित है उनकी आत्मकथा ‘ए डबल लाइफ‘ (एक दोहरी ज़िंदगी) पर जो कुछ समय पहले उनके और अरुण प्रभु के मिले-जुले प्रयास से प्रकाशित हुई थी।
कामयाब नुस्खों का जादू
भारत में पश्चिमी विज्ञापनों की ‘नकल’ करने से सफलता नहीं मिल सकती। हमारी सोच और सृजन भी पश्चिमी देशों जितना प्रबल है, पर वो हटकर है, क्योंकि हमारे विज्ञापन हमारे परिवेश और माहौल को ध्यान में रखकर सोचे और बनाए जाते हैं। हिंदुस्तान लीवर के विज्ञापन वर्षों से लिंटास ही बनाती आई है और उनके कई सुप्रसिद्ध ब्रांड भारत में ही बने हैं, जैसे डालडा, लिरिल, सर्फ, लाइफबॉय, और यह सब लिंटास इंडिया ने पूरी तरह भारतीय सोच के अनुरूप बनाए हैं। सर्फ-निरमा की टक्कर ने हिंदुस्तान लीवर और सर्फ की नाक में दम कर रखा था। निरमा की बिक्री 1 हजार टन से 250000 टन तक बढ़ती गई और सर्फ 45000 टन से 34000 टन पर गिर गया। सर्फ था भी निरमा से तीन गुना महंगा। मामला पेचीदा था, लेकिन अलग सोच से नतीजा निकला। बकौल पद्मसी, लीवर ने हमें लिंटास में सुझाव दिया कि हम उनकी अंतरराष्ट्रीय
‘कैम्पैन‘ में से सफेदी तथा सर्फ के शक्तिशाली एक्शन की बात पुनः दोहराएं, पर मुझे लग रहा था कि यह सब बहुत ‘रेशनल’ है। लोगों के दिमाग पर तो असर करेगा, मगर दिल नहीं जीतेगा। फिर हम सबने अपना दिमाग लगाया और पूर्णतः देसी तरीके से अपना विज्ञापन सोचा और जन्म हुआ ललिताजी का। हमने सोचा एक ऐसी भारतीय गृहिणी के बारे में जो मोल-भाव तो खूब करती है, पर सिर्फ सस्ते के लिए नहीं, बल्कि ‘वैल्यू फॉर मनी‘ के लिए। तभी वो कहती हैं कि ‘सस्ती चीज और अच्छी चीज में फर्क होता है भाईसाब।’ बात तो वह भी वही कहती हैं कि आधा किलो सर्फ 1 किलो निरमा के बराबर कपड़े धोता है, पर बिलकुल अपने ढंग से। देसी परिवेश, देसी ढंग, बात कहने का देसी अंदाज और बात बन गई और पूरे भारत में छा गई रवि बेटे की मां ललिताजी और उनकी ‘सर्फ की खरीददारी में ही समझदारी है।’ न सिर्फ यह विज्ञापन लोगों को पसंद आया, बल्कि उसने सर्फ की बिक्री में कई गुना बढ़ोतरी की।
लाइफबॉय- 1960 के दशक में लीवर सारी दुनिया में लाइफबॉय बेच रहे थे, पर उनके विज्ञापन की ‘थीम‘ थी शरीर की दुर्गंध हटाने में सहायक। पर हमने भारत के लिए भी इसी थीम से अपनी सहमति जाहिर की। भारत में शरीर की गंध-दुर्गंध की ओर कोई इतना ध्यान नहीं देता। पश्चिम में घर, ऑफिस सब बंद होने से घुटन होती है। यहां तो खिड़की-दरवाजे सब खुले रहते हैं, पसीने की बदबू का एहसास इतना नहीं होता।
हमने तो इसके बजाय ‘तंदुरुस्ती’ की धारा को थामकर, ‘लाइफबॉय है जहां, तंदुरुस्ती है वहां‘ का नारा बनाया और लाइफबॉय साबुन तो जैसे छा गया। लाइफबॉय ‘वेस्ट‘ में तो कभी का खत्म हो गया पर आज भी भारत में यह सर्वाधिक बिकने वाले साबुनों में से है। और एक समय तो लाइफबॉय दुनिया में सबसे अधिक बिकने वाला साबुन था।