लड़ भैया, जीते लगान!
अब जबकि ‘ऑस्कर‘ के पटल पर ‘लगान‘ के फैसले के उद्घोष में कुछ ही घंटे शेष हैं- क्योंकि निर्णायक मंडल के 5000 से अधिक सदस्यों ने अपना फैसला तो 19 मार्च को ही प्राइस वाटर हाउस के 2 ऑडिटरों को गुप्त रूप से बता दिया है- निर्णायक घड़ी से चंद लम्हे पहले ‘लगान‘ की तारीफ और उसकी संभावनाओं के बारे में क्या अभी भी कुछ कहना और लिखना बाकी रह गया है?
आशुतोष गोवारीकर के एक सपने को, जिसे आमिर और उनकी अर्द्धांगिनी रीना दत्ता के आमिर खान प्रोडक्शंस ने 25 करोड़ से अधिक की लागत से जीवंत और अमर कर दिया, हर बार देखकर ऐसा लगता है कि यह महज कोई फिल्म है या निपुण नेतृत्व और ‘टीम बिल्डिंग‘ के सारे अध्यायों पर एक जीती-जागती किताब या फिर फिरंगी अत्याचार और दमन के विरोध में भगतसिंह की पिस्तौल और गांधी की लाठी की ही तरह एक जुझारू ‘भुवन‘ के बल्ले की दास्तान, जो ‘एकला चलो रे‘ से शुरू होकर पूरे चांपानेर प्रांत की ‘डांडी यात्रा‘ बन गई या फिर कर्म के प्रति संपूर्ण समर्पण एवं आस्था और ‘कर्मफल‘ के लिए ‘पालनहारे‘ पर उतनी ही अटूट ‘भक्ति की शक्ति‘ में विश्वास का गीता-ज्ञान या फिर अपने सच और सिद्धांतों पर अडिग अदम्य बने रहने वाले एक ऐसे सपने देखने वाले ‘वामन‘ की कहानी जिसने अछूत कचरा की अपाहिज उंगलियों में भी अपने ‘एकलव्य‘ को भांप लिया और सिर्फ अपने ग्वालों की टोली को उत्साहित करके हर विपदा में भी आशा को तलाश कर कैप्टन रसेल के घमंड के तीनों विकेट गिरा दिए!
ये संभव है कि कई लोगों के लिए ‘लगान’ 3 घंटे 40 मिनट लंबी काल्पनिक क्रिकेट मैच पर बनी मधुर संगीत से सजी एक साधारण फिल्म के सिवा और कुछ नहीं लगे और वे उनकी जगह सही हैं। पर मुझे तो आज तक याद है कि पिछले साल न्यूयॉर्क में फिल्म के पहले दिन का शो देखने के बाद ही सबसे पहले मैंने इंदौर में अपने दादाजी को फोन किया था कि उन्हें ‘लगान‘ जरूर देखना चाहिए जबकि उन्होंने कई सालों में कोई फिल्म नहीं देखी होगी। मैं तो तबसे लगान के ‘कर‘ से मुक्त नहीं हो पाया हूं और आज उसी यज्ञ की पूर्णाहुति है। आमिर ने कुछ दिनों पहले एक प्रेस संदेश में कहा था कि वे चाहेंगे कि सारे भारतवासी ‘लगान‘ के ऑस्कर विजय के लिए जरूर प्रार्थना करें और मालवा की धर्म बहुल जनता की पुकार तो ‘निर्गुण और न्यारे‘ जरूर सुनेंगे! ‘कर्म और धर्म’ के धागे का ‘लगान‘ में बड़ा ही अद्भुत ताना-बाना है।
‘लगान‘ को ऑस्कर में सर्वश्रेष्ठ विदेशी फिल्म की अंतिम पंक्ति में नामजद किया जाना सिर्फ एकाकी ‘इवेंट‘ नहीं, लेकिन भारतीय कला के सभी अवयवों के संगम बॉलीवुड और उसकी फिल्मों के लिए एक ‘ट्रेंड’ की शुरुआत है। खासकर अमेरिका में तो भारतीय संगीत और उसके रविशंकर, भारतीय ज्ञान और उसके डॉ. राणावत, भारतीय उद्योग और उसके नारायण मूर्ति ने अमेरिका की ‘मुख्यधारा‘ में अपने-अपने ‘वंश’ की पहचान स्थापित कर दी है, लेकिन भारतीय, विशेषकर बॉलीवुड की फिल्मों को अभी अमेरिका की ‘मैनस्ट्रीम‘ में कोई खास जगह नहीं मिली है। मीरा नायर और सत्यजीत राय की कुछ अपनी पहचान जरूर है, लेकिन अब ‘मानसून वेडिंग‘ और उसके बाद ‘लगान‘ अमेरिका में जब टाइम्स स्क्वेयर पर मुख्य सिनेमाघरों में प्रदर्शित होंगी; ये बॉलीवुड उद्योग के लिए बहुत अच्छा है। लगान के लिए ‘ऑस्कर‘ इसी पहचान को और गहरा कर देगा, जिससे बॉलीवुड की फिल्में हॉलीवुड के सिनेमाघरों में दिखने लगीं। ‘एमली‘ और ‘नो मैंस लैंड‘ भी अपने आप में बहुत अच्छी विदेशी फिल्में हैं इसलिए ‘लगान‘ के लिए टक्कर कांटे की है, लेकिन आमिर-आशुतोष को तो एक ही धुन याद है ‘बार-बार हां ,बोले यार हां, अपनी जीत हो…‘; आखिर 323 रन के लक्ष्य की दुर्गमता, बिछड़ते हुए साथियों का छूटता साथ और यार्डली की ‘बॉडीलाइन‘ गेंदों से पर्दे का ‘भुवन’ भी कब घबराया था, उसके लिए तो सिर्फ यही था कि ‘मिटना है तो मिट जाएं, बढ़े चलो!‘ कितना सुखद संयोग है कि ‘लगान‘ की ऑस्कर यात्रा में भारतीय चित्रपट की दो सबसे ‘बुलंद‘ आवाजें और मूर्धन्य शिखर भी शरीक हैं, लता मंगेशकर के स्वर और अमिताभ बच्चन के बोल। यही नहीं, एकमात्र भारतीय ऑस्कर विजेता भानु अथैया ने ही इस फिल्म में पोशाकें रची हैं।